उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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तुलियन से लौटकर भुवन फिर प्रयोगशाला में डूब गया था। यद्यपि यह डूबना पहले से कुछ भिन्न था; क्योंकि तुलियन के प्रयोगों को लेकर वह जब भी गणना करने बैठता, तो उन प्रयोगों से मिलने वाली बौद्धिक प्रेरणा ही नहीं, उनकी ओट में तुलियन का वह भावोन्माद भी झलक आता जिसे ओट से खींच कर सामने लाने का प्रयत्न उसने नहीं किया था; वह अनुभूतियों का एक संघट्ट, संवेदनाओं का एक घना सम्पुंजन था जिसे विश्लिष्ट करके देखना चाहना ही मानो बर्बरता थी - जिस तरह किसी हलकी गैस से भरे हुए गुब्बारे से लटक जाने पर गुरुत्वाकर्षण को काट कर मानव मानो भार-मुक्त हो जाता है - पृथ्वी पर पैर रख कर चलता भी है तो भार देकर नहीं चलता, वैसी ही उसकी अवस्था थी; वह अपनी सब चर्या पूरी करता था, पर मानो धरती पर पैरों की छाप डाले बिना : जैसे मानवी काया-पिंजर में बँधा कोई आकाशचारी देव-गन्धर्व...। रेखा के दो-एक पत्र उसे आये थे, छोटे-छोटे, सूचनात्मक, जिनमें कभी एक-आध वाक्य अन्तरंग सम्बोधन का आ जाता तो आ जाता : उनसे वह भावोन्माद फिर भीतर ही भीतर पुष्ट हो जाता था, उभर कर सतह पर नहीं आता था। भुवन ने अधिक पत्र नहीं माँगे, बल्कि अपनी ओर से भी विशेष कुछ नहीं लिखा, वैसे ही सूचनात्मक पत्र...हाँ, रेखा की तरह उसने भी जब-तब कागज़ पर अपने विचार लिख कर रख छोड़ना आरम्भ कर दिया था - वह भी वैसा इरादा करके नहीं, रेखा के उदाहरण का ध्यान करके भी नहीं, लगभग अनजाने ही; उसकी वैज्ञानिक दीक्षा के कारण अन्तर इतना था कि अलग-अलग परचों की बजाय उसने एक कापी रख ली थी। यह जिज्ञासा भी उसके मन में कभी नहीं हुई कि क्या रेखा भी अभी वैसे कुछ लिखकर रखती होगी, या कि क्या वे विचार और भावनाएँ कभी वह देख-पढ़ सकेगा...। लेकिन ऐसा वह क्यों, कैसे हो गया वह स्वयं नहीं समझ पाता था। जीवन के प्रति ऐसा स्वीकार भाव उसमें कहाँ से आया? चन्द्रमाधव की भाँति वह जीवन को नोचने-झँझोड़ने का आदी तो नहीं था; बछड़े की देखा-देखी नृशंस ग्वाले जैसे गाय के थनों में हुचका मार कर दूध की अन्तिम बूँद निकाल लेना चाहते हैं, जीवन की कामधेनु को वैसे दुह लेने की प्रवृति उसकी नहीं थी; पर ऐसा प्रश्न-विहीन भाव भी तो उसका नहीं रहा था। यह क्या रेखा की छाप थी कि वह भी मानो धीरप्रवाहिनी जीवन की नदी का एक द्वीप-सा हो गया है? रेखा...उसकी आकृति का, विशेष घटनाओं या स्थितियों का चित्र भुवन के सामने कदाचित् ही आता; स्मृत संस्पर्शों या दुलारों का राग कदाचित् ही उसे द्रवित करता; पर रेखा के अस्तित्व का एक बोध मानो हर समय उसकी चेतना के किसी गहरे स्तर को आलोकित किये रहता और उसके प्रतिबिम्बित प्रकाश के अन्तःकरण को रंजित कर जाता-जैसे किसी पहाड़ी झील पर पड़ा हुआ प्रकाश प्रतिबिम्बित होकर आस-पास की घाटियों को उभार देता है...केवल कभी-कभी वह साँझ को बाइबल उठाकर उसमें सालोमन का गीत पढ़ने बैठ जाता, पढ़ते-पढ़ते ऐसा विभोर हो जाता कि जोर-जोर से पढ़ने लगता; फिर अपना स्वर उसे चौंका देता-मानो जाग कर वह जानता कि वह रेखा के कारण उसे पढ़ रहा है-प्रकारान्तर से रेखा के साथ है...।
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