उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
तब, पहली बार वह
दर्द उसे साल गया था। “प्रकृति के लिए फुरसत”-एक प्रकृति बाहर की जड़
प्रकृति है, एक उसकी धमनियों में गरम-गरम प्रवाहित होने वाली उसकी
प्रकृति-और क्या सचमुच उसे फुरसत नहीं हुई थी? झूठ वह नहीं बोलेगा, गौरा
से बिलकुल नहीं, पर कहे क्या वह? जो-कुछ भी वह कहेगा, क्या वह झूठ नहीं
होगा?
उसने कहा था, “कितने भी यन्त्र हों, पहाड़ को और प्रकृति
को नहीं छिपाते”, फिर कुछ रुक कर अपने को बाध्य करते हुए, “तीन-चार दिन के
लिए रेखा देवी भी वहाँ आयी थी-बल्कि यन्त्रों के आने से पहले।”
एक
भारी-सा मौन उनके बीच में पड़ गया था। वह दर्द भुवन को फिर सालने लगा था,
पर इस मौन को ठेल कर हटा देने की प्रेरणा उसमें नहीं थी। गौरा भी कुछ कहने
को हुई थी - फिर सहसा चुप लगा गयी थी; भुवन देख सका था कि वह कुछ कहती रुक
गयी है, पर क्या, वह नहीं सोच सका था। अन्त में गौरा ने ही कहा था, “अब
कहाँ हैं रेखा देवी?”
“कश्मीर में-वहाँ उन्होंने नौकरी कर ली है। पीछे दिल्ली में थी-दिल्ली से
वहाँ चली गयीं।”
गौरा ने फिर कुछ रुककर, सकुचाते हुए कहा था, “हाँ।” फिर वह कुछ कहने को
हुई थी, और फिर रुक गयी थी।
मौन
और भी भारी हो गया था। अब की बार उसे कोई नहीं तोड़ सका था। अन्त में जब
भुवन ने कहा था, “चलो, घर चलेंगे - यहाँ कुछ और नहीं करना है”, तब भी उसे
यह नहीं लगा कि उस भारी मौन को वह तोड़ सका है; बात उसने की है ज़रूर, पर
यह दूसरे स्तर पर है, जिस स्तर पर मौन है उस पर यह पहुँची ही नहीं...।
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