उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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गौरा के जाने के बाद वापस लौटकर बहुत देर तक भुवन कमरे में और छत पर चक्कर काटता रहा। गौरा के आने ने उसके भीतर जो उद्वेलन उत्पन्न कर दिया था, उसका कारण वह नहीं जानता था, न कोई स्पष्ट विचार ही उसके मन में उठ रहे थे, केवल एक आकारहीन, केन्द्रविहीन आकुलता...फिर वह अपनी कापी लेकर बैठा, लेकिन उसमें भी कुछ न लिख सका : कापी सामने रख कर बैठा रहा, साँझ घिर आयी, बादल छा गये और गरजने लगे...उसने कापी रख दी और टहलने निकल गया।
दूसरे दिन फिर वह पूर्ववत् अपने काम में जुट गया; उद्वेलन भीतर-ही-भीतर कहीं दब गया और पहले की स्थिति फिर हो गयी-काम, काम, काम केवल चेतना के भीतरी किसी स्तर पर एक आलोकमय छाप, और उसके साथ गुँथा हुआ रेखा का ध्यान जो सतह पर नहीं आता...।
इस अवस्था से रेखा के पत्र ने उसे झकझोर कर जगा दिया - और ऐसा जगाया कि फिर वह कभी उस अवस्था को नहीं लौटा; फिर जब आयी तो एक प्रकार की जड़ता आयी, और उसके भीतर एक आलोक नहीं, एक गुथीला अन्धकार...।
पत्र पाकर उसने पढ़ा, तो पहले शान्त भाव से ही पढ़ गया; कोई आश्चर्य की बात उसमें नहीं थी। रेखा से जब वह विदा हुआ था, तब तो बात हुई थी उससे यह परिणाम निकलता ही था - रेखा ने सूचित कर दिया था और यह भी कह दिया था कि वैसा ही वह चाहती है...पर क्या तब सच-मुच वह समझ सका था? उसने मन-ही-मन स्थिति को मूर्त किया - नदी के आर-पार पड़े शहतीर पर वे दोनों, दोनों स्तब्ध, नीचे दौड़ता उफनता पहाड़ी नदी का जल; और दोनों की अपूर्ण आकांक्षाओं का आरोप उस भविष्यत् जीव पर जिसे शायद उन्होंने अनजाने और एक आविष्ट मोहावस्था में रचा है...। क्या तब वह उस बात का पूरा अभिप्राय समझा था जो रेखा ने कही थी - क्या वह अब भी समझ रहा है?
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