उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“न। मुझे तो अच्छा लगता है-”
“तो चलो।” फिर कुछ रुककर, “लेकिन - तुम्हारी शाल ले आऊँ - पर तुम्हारा
कमरा भी तो नहीं जानता?”
“तो
पहले वही देखोगे?” रेखा मधुर मुस्करायी, “नहीं वह फिर दिखाऊँगी। पर शाल तो
अन्दर जाते दाहिने को टँगी है - मैंने दिन में रखी थी।”
भुवन उठा लाया।
रेखा ने कहा, “फल तो लगभग सब उतार लिए गये हैं, जिधर हैं उधर ही चलें -
उधर तो कुछ धूप भी होगी।”
भुवन
को याद आया। डूबते सूर्य का उन्होंने पीछा किया था, और हार गये थे। नहीं,
आज वह डूबते सूर्य का पीछा नहीं करेगा; सूर्य को डूब जाने दो, पकते सेब पर
उसकी धूप की चमक ही इष्ट है - उसी को वह देखेगा, उसकी लालिम कान्ति में
सूर्य की धूप पकेगी, सुफला होगी...शारदीया साँझ की धूप में फलों-लदा सेब
का पेड़-जीवन के आशीर्वाद का, जीवन-रूप आशीर्वाद का इससे बढ़ कर और कौन-सा
प्रतीक है? शरदारम्भ अभी नहीं हुआ, अभी बरसात का अन्त ही है, फलों पर भी
अभी वह सूर्यास्त की लाल-सुनहली कान्ति नहीं आयी, पर उस फले हुए जीवन-तरु
को वह देख सकता है-
...देयर इज़ येट फेथ
एण्ड द फेथ एण्ड द लव
एण्ड द होप आर आल इन द वेटिंग ...
(...फिर भी विश्वास है-किन्तु विश्वास और प्रेम और आशा सब प्रतीक्षा में
ही हैं... -टी. एस. एलियट)
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