उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“क्यों? ओ-यह! नहीं भुवन, अधिक
कुछ भी हो तो मुझे चुभता है - मैं अपने साथ ही जीना चाहती हूँ - बाहर का
अनावश्यक लटा-पटा मुझसे सहा नहीं जाता।”
“और मैं मुगल बादशाह हूँ - क्यों?”
“वह तो मेहमान का कमरा है, डाक्टर साहब - आप हमारे मेहमान हैं।”
भुवन
ने हाथ बढ़ाकर बिस्तर टटोला - तख्तों का पलंग, उस पर गद्दा नहीं था - दरी,
नमदा, चादर; अचानक उसने तकिया एक ओर को खींचा, उसके नीचे एक कापी थी। उसने
चुप-चाप तकिया वैसे ही रख दिया, मानो कापी न देखी हो।
“यहाँ बैठोगे, भुवन, या उधर चलें?'
“कहना तो यह चाहता हूँ कि मैं इधर रहूँगा, तुम उधर जाओ; पर - चलो, उधर
बैठेंगे; क्योंकि मैं मेहमान हूँ!”
“हाँ!”
रेखा को उसने टेबल पर लैम्प के पासवाली कुरसी पर बिठाया, स्वयं पलंग पर बैठ गया। दोनों थोड़ी देर एक-दूसरे को देखते रहे।
“तुम-फिर आ गये, भुवन; मैंने नहीं सोचा था।”
“यह सोच लिया था कि अब नहीं आऊँगा?”
“नहीं भुवन, यह नहीं; पर आओगे, यह कभी नहीं सोचती थी।”
दोनों फिर थोड़ी देर चुप रहे।
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