उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा ने उठते हुए पास आकर कहा, “हाँ भुवन।
तुम्हें क्लेश पहुँचाना नहीं चाहती थी-अविश्वास मैंने नहीं किया। पर वह
असम्भव है। मैंने तुम से प्यार माँगा था; तुम्हारा भविष्य नहीं माँगा था,
न मैं वह लूँगी।”
भुवन भी खड़ा हो गया। “तुमने नहीं माँगा, नहीं माँगोगी। तुम्हारे माँगने न
माँगने का सवाल भी नहीं है। मैं माँग रहा हूँ रेखा।”
“न
भुवन! बात वही है।” “तुम कुछ कहो, मैं नहीं भूल सकती कि जो हुआ है वह न
हुआ होता तो तुम न माँगते न कहते; इसलिए तुम्हारा कहना परिणाम है। और यह
कहना परिणाम नहीं, कारण होना चाहिए, तभी मान्य तभी उस पर विचार हो सकता
है।”
“रेखा!” भुवन ने अपने दोनों हाथ उसके कन्धों पर रख दिये।
धीरे-धीरे उसे फिर कुरसी पर बिठा दिया, फिर दो कदम पीछे हटकर मैंटल के
सहारे खड़ा हो गया।
“रेखा, और भी बातें सोचने की हैं।”
रेखा
ने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा, “हैं न?” इसीलिए यह बात सोचने की नहीं
रही। यह तभी सोची जा सकती है जब एक और अद्वितीय हो, दूसरी किसी बात से
असम्बद्ध हो।”
भुवन ने चाहा कि झल्ला उठे। क्यों रेखा उसकी बात
ठीक नहीं समझती? क्यों उलटे अर्थ लेती है? पर वह जो कहती है, उसमें भी तो
तथ्य है... तथ्य है, यही तो झल्लाहट का कारण है - यह ऐसी गुत्थी है कि
बँधी उनके चाहने से, पर खुलेगी नहीं, जितना वे चाहेंगे और उलझती जाएगी...।
“रेखा, उस-उस बीनकार की बात भी तो सोचो।”
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