उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“जो बता दो : वह कौन है, क्या है, कहाँ की है, क्या करती रही है, क्या
करती है, अकेली क्यों घूमती है-”
“रुको इतना पहले बता लूँ तो और पूछना; नहीं तो मेरा सिर चकरा जाएगा।”
लेकिन
बता कर क्या बताया जा सकता है? स्वयं वही जब कहता है कि तथ्य और सत्य में
अन्तर है, तब निरे तथ्य जान कर सत्य तक पहुँचने की व्यर्थ कोशिश वह क्यों
कर रहा है? “सत्य अपने अन्तर की पीड़ा से जाना जाता है।” वही मानते हो, तो
ठीक है; वही क्यों न परीक्षा करके देखो?
तथ्य कुछ अधिक थे भी नहीं।
रेखा
की आयु यही सत्ताईस के लगभग होगी; वह विवाहिता है, विवाह आठ वर्ष पहले हुआ
था, पर विवाह के दो-एक वर्ष बाद ही पति-पत्नी अलग हो गये थे। कारण कोई ठीक
नहीं जानता, और रेखा से पूछने का साहस किसे है? कोई कहते हैं, विवाह से
पहले रेखा का किसी से प्रेम था पर उससे विवाह हो नहीं सकता था; उसने बाद
में दूसरा विवाह कर लिया तो मर्माहत रेखा ने उसके माता-पिता ने जो वर ठीक
किया उसे चुपचाप स्वीकार कर लिया पर उसे वह दे न सकी जो पति को देना
चाहिए; कोई यह कहते हैं कि पति की ही आदतें शुरू से खराब थीं वह पत्नी के
प्रति अत्यन्त उदासीन था, मित्रों को लाकर घर छोड़ जाया करता था और स्वयं
न जाने कहाँ-कहाँ जा रहता था। सच क्या है भगवान जाने, पर छः वर्ष से दोनों
अलग हैं, और तीन-चार वर्ष हुए पति एक विदेशी रबर कम्पनी में अच्छी नौकरी
स्वीकार कर के मलय चला गया है; वहाँ उसके साथ मलय या एंग्लो-मलय या
यूरोपियन-मलय मिश्र रक्त की कोई स्त्री भी रहती है। रेखा नौकरी करती है;
पढ़ती रहती है, फिर किसी रियासत में राजकुमारियों की गवर्नेस थी, वहाँ से
हाल में इस्तीफा देकर आयी है। अभी कुछ नहीं कर रही है लेकिन नौकरी की तलाश
में है।
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