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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चाय पी गयी थी। शाम फिर वैसी ही मेहमान-मेजबान के ढंग से बीती थी, खाना भी वैसे ही खाया गया था। भुवन ने बताया था कि वह सारा शहर घूम गया; बन्ध, लाल-मण्डी, अमीरा कदल, वजीर बाग़-दो-चार नाम भी उसने अपनी जानकारी बताने के लिए ले दिये थे। रेखा ने बताया था कि वह थोड़ा पढ़ती-लिखती रही, बाकी उसने ख़ूब आराम किया...उसके बाद पूर्ववत् भुवन के कमरे में बात हो रही थी।

“एक बात और है भुवन - और यह बुनियादी बात है , विवाह हो ही कैसे सकता है - मैं तो बँधी हूँ” सहसा कटु मुस्कान के साथ, “केवल दुराचार....”

“चुप!” भुवन ने डपट कर कहा , रेखा ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। “रेखा, और जो है, अपने को यों सताने की कोई ज़रूरत नहीं है।”

“आई'म सॉरी, भुवन!” रेखा ने सच्चाई से कहा-”पर – बँधी तो हूँ।”

“तो मैं प्रतीक्षा करूँगा।”

रेखा हँस पड़ी। “क्या बच्चों की तरह प्यारा मुँह बनाकर कहते हो, प्रतीक्षा करूँगा।” रेखा ने पास जाकर अँगुलियों से उसके ओठ पकड़कर भींच दिये, जैसे बच्चों के ओठ भीच देते हैं। “कब तक आख़िर - और किसलिए?” वह थोड़ा रुक गयी। “जिसके लिए-जिसके लिए सोचते हो वह तो...” सकपका कर वह फिर बैठ गयी।

भुवन फिर निरुत्तर होकर टहलने लगा। रेखा चुपचाप उसका मुँह निहारने लगी। उसकी चाल में निश्चय और विमूढ़ता का अजब मिश्रण था; हाथ पीछे गुँथे हुए, सिर कुछ झुका लेकिन ठोढ़ी सामने बढ़ी हुई, और भँवों के बीच में दो रेखाएँ, जिनसे बीच का हिस्सा कुछ लाल-लाल जान पड़ता था...।

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