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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“ओह, यह मेरे मेज़बान की कृपा है।”

एक किताब निकालकर उसने खोली, नीचे झुकाकर ऐसे रखी कि रेखा भी देख सके, और स्वर-हीन ढंग से पढ़ने लगा। रेखा भी साथ-साथ पढ़ती रही। कभी बीच में एक-आध पंक्ति वह गुनगुना देती, भुवन जानता था कि दोनों लगभग साथ-ही-साथ पढ़ रहे हैं। पन्ना पलटने से पूर्व क्षण-भर रुकता और फिर धीरे-धीरे उलट देता।

सो लेट मी बी दाइ क्वायर , एण्ड मेक ए मोन
अपान द मिडनाइट आवर्स ;
दाइ वाएस , दाइ ल्यूट, दाइ पाइप, दाइ इन्सेन्स स्वीट
फ्राम संस्विगेड सेंसर टीमिंग ,
दाइ श्राइन , दाइ ग्रोव, दाइ आरैकल, दाइ हीट
आफ़ पेल -माउथ्ड प्राफेट ड्रीमिंग।

(मुझे होने दो तुम्हारा गायक , जो मध्य रात्रि की घड़ियों को अपनी व्यथा से भरे; तुम्हारा स्वर, तुम्हारी वीणा, तुम्हारी वंशी, तुम्हारा झूलते हुए धूपदान से उठता हुआ गन्ध-धूम; तुम्हारा मन्दिर, तुम्हारा कुंज, तुम्हारी देववाणी, तुम्हारे विवर्ण स्वप्नदर्शी सन्देशवाहक की उत्तेजना! -जॉन कीट्स)

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