उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन, तुम्हें एक ख़बर देनी है, तीन सुनाइयों के बाद
अदालत ने फैसला दे दिया है : हमारा विवाह रद्द हो गया है; हेमेन्द्र तो
अफ्रीका चला ही गया है और अब मैं भी मुक्त हूँ। मुक्त - किससे मुक्त -
किसलिए मुक्त? मुक्त स्मृतियों को सेने के लिए, मरने के लिए - मुक्त अतीत
के बन्धन में जकड़ी रहने के लिए... तलाक़ का विधान अच्छा नहीं है यह कौन
कह सकता है, पर कितने अपर्याप्त हैं मानवीय विधान प्रकृति की समस्याओं के
सामने - बल्कि मानव की ही समस्याओं के सामने...यों तो शायद यह विच्छेद अभी
वैकल्पिक है; पक्का होने के लिए छः मास का अन्तराल होता है न? पर वह तो
कम-से-कम इस मामले में कोरी फ़ार्मेलिटी है। आज न सही, पाँच-एक महीने बाद
सही... रद्द तो वह हो ही गया। लेकिन क्या रद्द हो गया? वह दर्द? वह
ग्लानि, वह आत्मावसाद, वे मर्माघात - क्या वे रद्द हो सकते हैं? कानून मान
ले कि उसने मुक्ति दे दी है, कि एक अन्याय का निराकरण कर दिया है...।
अब
आगे, भुवन? मेरा जी नहीं लगता, और अब कलकत्ते नहीं रहूँगी। सोचा है कि
मौसी को साथ लेकर तीर्थ-यात्रा को निकल जाऊँ। तुम शायद हँसो, क्योंकि
तीर्थयात्रा के लिए जो श्रद्धा चाहिए वह तुमने मुझमें न देखी होगी; मौसी
भी तितीषु हों, तीर्थों के भरोसे नहीं हैं। फिर भी, एक तो घूमने में,
निरन्तर दृश्य-परिवर्तन में कुछ शान्ति मिलेगी; दूसरे अपनी श्रद्धा न हो
तो श्रद्धावानों की श्रद्धा देखकर ही कुछ सान्त्वना मिलती है या मिल सकती
है...दो-तीन दिन में ही हम लोग चल देंगे,: पुरी से आरम्भ करके क्रमशः
दक्षिण जहाँ तक जाना हो सके। यह फरवरी है, सोचती हूँ कि गर्मियाँ उधर कट
जाएँगी और बरसात लगते इधर लौट आएँगे।
तुम पत्र तो लिखोगे नहीं, फिर भी कह दूँ कि पता यही काम देगा, यहाँ से
चिट्ठियाँ जहाँ भी हम होंगे चली जाया करेंगी।
अच्छा, भुवन विदा दो। चाहती हूँ, झुककर एक बार तुम्हारे चरणों की धूल ले
लूँ।
रेखा
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