उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
इस सबसे ध्वनि होती है
कि मैं तुम्हें उलाहना दे रहा हूँ - वैसा नहीं है। वैसी भावना मन में कभी
आयी भी होती, तो मानना होता कि तुम ने अगर भूल की भी तो उसका भरपूर शोध भी
किया - नहीं रेखा, मैंने जो पहले कहा कि तुम्हें दोषी माना था वह ठीक नहीं
है, दोषी तुम मुझसे अलग या अधिक कैसे हो? - अपने एक अंश को नष्ट होने देने
के लिए स्वयं अपने को मर जाने दिया, रेखा; उस अंश को, जो स्वयं भी
मूल्यवान् था, और उससे बढ़कर जो एक और मूल्यवान् अनुभूति का फल था - इस सब
का अनुभव करते हुए मैं तुम्हारे आगे झुक ही सकता हूँ, समवेदना से भरकर
तुम्हारे पास खड़ा हो सकता हूँ, दोष नहीं दे सकता। और जब यह सोचता हूँ कि
यह बहुत बड़ा आत्म-बलिदान भी मुझ पर तुम्हारे स्नेह की अभिव्यक्ति थी - तब
तो गड़ जाने को जी चाहता है।
रेखा, एक बात को तुम समझोगी - तुम
नहीं समझोगी तो कोई नहीं समझ सकेगा-प्यार मिलाता है; व्यथा भी मिलाती है;
साथ भोगा हुआ क्लेश भी मिलाता है; लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि सीमा पार कर
लेने पर ये अनुभूतियाँ मिलाती नहीं, अलग कर देती हैं, सदा के लिए और
अन्तिम रूप में? अनुभूतियाँ गतिशील हैं, अतीत होकर भी निरन्तर बदलती रहती
हैं और व्यक्तित्व को विकसाती हुई उसमें घुलती रहती हैं, लेकिन यह सीमा
लाँघ जाने पर जैसे वे गतिशील नहीं रहतीं; स्थिर, जड़ हो जाती हैं; एक न
घुल सकनेवाला लोंदा, एक वज्र धातु-पिण्ड। फिर व्यक्ति मानो इन अनुभूतियों
को चौखटे में जड़कर रख लेता है; जीवन एक चलचित्र न रहकर स्थिर चित्रों का
संग्रह हो जाता है, और हर नयी सम्भाव्य अनुभूति के आगे व्यक्ति किसी एक
चित्र को प्रतिरोधक दीवार की तरह खड़ा कर लेता है। मेरे पास अधिक चित्र
नहीं हैं, कह लो कि एक ही है, पर वही-हमारे साझे अनुभवों का सम्पुंजन ही,
रेखा!-हमारे बीच में दीवार-सा खड़ा हो जाता है। हम मिलेंगे, लेकिन मानो इस
दीवार के आर-पार; हाथ मिलाएँगे, लेकिन मानो इस चौखटे के भीतर से; एक-दूसरे
को देखेंगे, लेकिन मानो इस चौखटे में जड़े हुए-तुम उधर से, मैं इधर
से...रेखा, मैं अब भी तुम्हें प्यार करता हूँ, उतना ही, पर...।
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