उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लेकिन भुवन, तुम क्या नहीं
समझते कि मेरे लिए मानवी प्यार की आख़िरी अभिव्यक्ति तुम थे - थे नहीं,
हो, रहोगे - और इसीलिए मैं मर गयी और अब नहीं जियूँगी? अगर मैं रो सकती,
तो रोती - अतीत के लिए नहीं, अपने लिए नहीं, उस सबके लिए नहीं, जो अब नहीं
रहा, रोती इस तुम्हारे अभियोग - क्योंकि यदि यह अभियोग है तो फिर मुक्ति न
मेरे लिए है, न तुम्हारे लिए - मैं जो सोचती थी कि जो भी हुआ, मैं जो टूट
गयी, उसकी बड़ी व्यथा हमारे चरित्र में फैलेगी, मेरे से अधिक तुम्हारे
में, वह सब झूठ होगा; वह व्यथा एक अर्थहीन ट्रेजेडी हो जाएगी क्योंकि
उसमें अभियोग होगा, और उसकी अर्थहीनता हम दोनों को ले डूबेगी। मेरा तो कुछ
नहीं, मैं तो डूबी ही हूँ - पर तुम, भुवन, तुम! मेरी सारी आशाओं का
केन्द्र तुम हो - मेरे अन्तर तम की सारी व्यथा को इस तरह व्यर्थ न कर दो,
भुवन! व्यथा सृजन करती है, मेरी व्यथा बाँझ रह गयी, मुझे भी झुलसा गयी, पर
मैंने मानना चाहा था कि वह तुम्हीं को बनाएगी, और मैं अपनी व्यर्थता
तुम्हें अर्पित करके सार्थक हो जाऊँगी। वह सान्त्वना भी मुझे नहीं
मिलेगी...
जाने दो। न मिले। अब और कोई सान्त्वना मुझे नहीं चाहिए, मुझे मर जाने दो,
भुवन!
भुवन,
तुम्हारी
अधूरी चिट्ठी का जवाब मैं तुरत लिख गयी थी, वह तुम्हें अब तक न मिला हो तो
फिर उसे मत पढ़ना - पढ़ चुके हो तो क्षमा कर देना। तुम्हारी चिट्ठी मैंने
फिर पढ़ी है, कई बार फिर, शायद दोष तुम ने नहीं दिया - तुम्हारे पत्र में
परिताप ही है जिसे मैंने अभियोग माना। पर नहीं, मेरे सहभोक्ता, अभियोग वह
नहीं है, मैं समझती हूँ; और जो आघात मैंने पाया था उसका घाव भर गया है -
अपना आक्रोश मैं वापस लेती हूँ और क्षमा माँगती हूँ। तुम्हारी चिट्ठी पाकर
जानूँगी कि तुमने माफ़ कर दिया - यद्यपि मेरे आग्रह से तुम लिखोगे नहीं यह
जानती हूँ।
रेखा
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