उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“कह डालिए न, आप
का भटकना पाँच-छः वर्ष का ही है; आप जानते तो होंगे कि मेरा विवाह हुए आठ
वर्ष हो गये और विवाह के दो वर्ष बाद से...”
भुवन चुप रह गया।
“आपकी
बात ठीक है। कुछ सम्बन्ध बने भी रह सकते थे, और उन्हें काट कर बह निकलना
स्वेच्छा से ही हुआ। पर - जड़ों का ही रूपक लिए चलें तो - यह आप नहीं
मानते कि कुछ जड़ें वास्तव में जीवन का आधार होती हैं, और सतही जड़ों का
बहुत बड़ा जाल भी एक गहरी जड़ की बराबरी नहीं करता?”
“हाँ”
“तब एक जड़ के कट जाने से भी पेड़ मर सकता है और मरे नहीं तो भी निराधार
तो हो ही सकता है। मैं मरी नहीं”
गाड़ी फिर चल दी। इस समय शायद भुवन को गाड़ी के चल देने से तसल्ली ही हुई,
क्योंकि ऐसे में क्या कहे वह सोच नहीं सकता था।
बात
ज्यों-ज्यों आगे चलती थी, अगले स्टेशन पर फिर न जा पहुँचना उतना ही अनुचित
जान पड़ता था; अनुचित ही नहीं, भुवन स्वयं भी बात आगे सुनने को उत्सुक था।
अगले स्टेशन पर रेखा ने कहा, “डाक्टर भुवन, मैं अपनी बात के लिए
क्षमा चाहती हूँ। इस तरह की बात करने की मैं बिल्कुल आदी नहीं हूँ, आप
मानें। पर रेल का सफ़र शायद इस तरह के आत्म-प्रकाशन को सहज बनाता है -
चलती गाड़ी में हम अजनबी को भी बहुत-सी ऐसी निजी बातें कह देते हैं जो
अपने ठिकाने पर घनिष्ट मित्रों से भी न कहें।” वह कुछ रुकी। फिर बोली, “यह
शायद जड़ों वाली बात का एक पहलू है; चलती गाड़ी में मुझ-जैसे व्यक्ति को
एक स्वच्छन्दता का बोध होता है जबकि स्थिरता की सूचक किसी जगह में मुझे
अपना बेमेलपन ही अखरता रहता और मैं गूँगी हो जाती। इसलिए मेरी बात पर
ध्यान न दें-यह चलती बात है।” अपने श्लेष पर वह स्वयं हँस दी। भुवन ही
नहीं हँस सका।
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