उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
तुम
कैसे हो भुवन? तुमने पिछले पत्र में मुझे लारेंस की जो कविता भेजी थी उसी
से अनुमान लगाऊँ तुम्हारी मनःस्थिति का तो वह स्वीकार नहीं होता-नहीं
भुवन, दर्द को, परिताप को जी से चिपटा कर मत बैठो-देखो, यह तुमसे मैं कहती
हूँ, मैं! एक निग्रो कविता है :
आइ रिटर्न द बिटरनेस
ह्विच यू गेव टू मी ;
ह्वेन आइ वांटेड
लव्लिनेस
टैंटेलैंट एण्ड फ़्री।
आइ रिटर्न द बिटरनेस
इट इज वाश्ड बाइ
टीअर्स
नाउ इट इज़ लव्लिनेस।
गार्निश्ड थ्रू द
यीअर्स।
आइ रिटर्न इट विद
लव्लिनेस
हैविंग मेड इट सो :
फ़ार आइ वोर द बिटरनेस
फ्राम इट लांग ऐगो।
(मैं
लौटाती हूँ वह कटुता जो तुमने मुझे दी थी, जबकि मैं चाहती थी सौन्दर्य,
मुक्त और दोलायमान। मैं लौटाती हूँ वह कटुता ; अब वह आँसुओं से धुल गयी
है-अब वह वर्षों बीन-बीन कर संग्रह किया हुआ सौन्दर्य है। मैं उसे लौटाती
हूँ सौन्दर्य के रूप में, जो मैंने बनाया है, क्योंकि कटुता तो उसमें से
मैंने कब की धो डाली।)
इसके पहले पद को उलहना न समझना, सार की
बात अन्तिम पद में है : हम अपने भीतर पका कर व्यथा को सौन्दर्य बनाते हैं
- यही सृष्टि का रहस्य है, बल्कि यह तुमने मुझे बताया था! पकाने में समय
बीत जाता है, हम बूढ़े भी हो जा सकते हैं, परास्त भी हो सकते हैं, हमारी
आकांक्षाएँ अधूरी भी रह जा सकती हैं - पर उस सबका कोई महत्त्व नहीं है,
बूढ़े होने का नहीं, हारने का नहीं-महत्त्व है उस आन्तरिक शान्ति का जो
पकने में मिलती है, उस तन्मयता का...मैं तो यही अनुभव करती हूँ, तुम मालूम
नहीं ऐसा करते हो कि नहीं, पर उस गम्भीर शान्ति का बीज मुझमें तुम्हीं ने
बोया था, और उसकी जड़ें निरन्तर गहरी होती जा रही हैं। मैं शान्त हूँ; जो
भावनाएँ मुझे तोड़ती-मरोड़ती, चिथड़े करके रख देती थी, अब मुझे छूती भी
नहीं। और यह नहीं कि मैं हृदय-हीन हो गयी हूँ, संवेदनशून्य हो गयी
हूँ-नहीं, मैं अधिक संवेदनशील भी हूँ, पर अधिक अनासक्त भी...।
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