उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
महीने के अन्त
में - जनवरी 1942 - गौरा और भुवन के एक-दूसरे को लिखे गये पत्र दोनों को
लगभग साथ-साथ मिले। भुवन ने गौरा को वसन्त की शुभकामनाएँ भेजी थीं और यह
सूचना दी थी कि वह फिर बाहर जा रहा है-ठीक विदेश नहीं, पर सागर-पार; हिन्द
महासागर में कहीं-कदाचित् अण्डमान में-रेडियो के नये प्रयोग के लिए एक
छोटा-सा केन्द्र बन रहा है, उसी में। केन्द्र सैनिक नियन्त्रण में होगा और
इस अन्वेषण का इस समय सामरिक महत्त्व ही अधिक है यद्यपि आगे वह अत्यन्त
उपयोग होनेवाला है। अधिक दिन के लिए नहीं जा रहा है; नये सेशन से पहले ही
लौट आएगा शायद। गर्मियों की छुट्टियों में गौरा तो दक्षिण होगी शायद, हो
सकता है कि लौटकर वह उधर आये...अन्त में एक वाक्य और था, “मैं असुखी नहीं
हूँ गौरा, न उन पिछली बातों से तप रहा हूँ; तुम चिन्ता न करना, और अपनी
देख-भाल करना।”
गौरा की चिट्ठी भी मुख्यतया सूचना के लिए थी।
गर्मियों का अवकाश वह दक्षिण में ही बिताएगी - मद्रास या बंगलौर में किसी
संगीताचार्य के पास - और तभी वहीं निश्चय कर लेगी कि और एक वर्ष भी उधर ही
रह जाये या वापस बनारस आवे। पत्र के साथ उसने बम्बई के अख़बार की कतरन
भेजी थी : “इस कटिंग में अवश्य तुम्हें दिलचस्पी होगी : मैं तो अवाक् होकर
सोचती हूँ कि चन्द्रमाधव कैसे कम्युनिस्ट हो सकते हैं - मनसा भी, और उनके
इधर के काम तो बिल्कुल इसके विरुद्ध जाते हैं, और यह विवाह...। फिर भी आशा
है तुम उन्हें शुभ कामनाओं का एक पत्र लिख दोगे। मैं भी लिख रही हूँ। बधाई
का भाव तो मन में नहीं उठता - झूठ क्यों बोलूँगी - पर सत्कामनाएँ
भेजूँगी।” अन्त में उसने भी अधिक निजीपन से लिखा था, “मैं 'तुम' लिख गयी
हूँ - बिना इजाजत लिए ही - बुरा तो न मानोगे? बोलने में, लगता है अब भी
मिलूँगी तो 'आप' ही कहूँगी, पर चिट्ठी में 'तुम' लिखना ही आसान और ठीक भी
जान पड़ रहा है, बल्कि सोचती हूँ, 'आप' अब कैसे लिखूँ? आप नाराज़ तो न हो
जाइयेगा, देव-शिशु?”
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