उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
ऐसी बात सुनकर गौरा को सहसा स्वयं बोध हो आता, हाँ,
उसके चेहरे पर एक तनाव है जो नहीं होना चाहिए, क्षण-भर आयासपूर्वक वह
चेहरे के स्नायु-तन्तुओं को ढीलाकर के हँस कर कहती, “कुछ नहीं, शायद
मास्टरनियों वाला चेहरा हुआ जा रहा होगा-मास्टरनी का चेहरा एक अलग किस्म
का होता है-जिस तरह आदमी और सिख दो अलग-अलग जातियाँ होती हैं उस तरह औरत
और मास्टरनी भी दो अलग जातियाँ होती हैं।” बात हँसी में उड़ जाती'; पर
पीछे गौरा सोचने लगती, क्या सचमुच ऐसे उसका चेहरा कठोर हो जाएगा-क्यों?
अनुशासन बाहर से आरोपित किया गया हो; जो भीतरी है, जो साधना है, और जो
आनन्ददायिनी भी है, वह क्यों कठोर रेखाएँ लावे-उसकी रेखाएँ तो मृदु होनी
चाहिए-पुस्तकों में तो यही लिखा है कि साधना से चेहरे पर एक कान्ति आती
है, शरीर भले ही कृश हो जाये। उसे 'कुमार-सम्भव' की तपस्या-रत हिमालय-सुता
की याद आ जाती, कालिदास की पंक्तियाँ वह धीरे-धीरे दुहरा जाती :
मुखेन सा
पद्मसुगन्धिना निशि प्रवेयमानाधरपत्रशोभिता।
तुषारवृष्टिक्षतपद्म
सम्पदां सरोजसन्धानमिवा करोदपाम्।।
फिर
सहसा इसमें निहित तुलना की अहम्मन्यता पर वह लज्जित हो जाती और कोई वाद्य
लेकर बजाने बैठ जाती कि उसमें लज्जा और उस समूची विचार-परम्परा को डुबा
दे...और वास्तव में वह बजाते-बजाते विभोर हो उठती, तब वे सब रेखाएँ मिट
जाती और सचमुच एक अद्भुत कान्ति उसके चेहरे पर छा जाती-मसूरी के जल-वायु
से पायी कान्ति से भी अधिक आभायुत-लेकिन वह स्वयं उसे न जान पाती; वादन
समाप्त करके वह उठती, तो उसके चेहरे पर एक मृदुल स्थिरता का भाव होता जैसा
सद्यः सोकर उठे स्वस्थ शिशु के चेहरे पर होता है।
इसी प्रकार
सेशन पूरा हो गया, छुट्टियाँ लगीं; गौरा तीन-चार दिन के लिए मसूरी होकर,
भुवन को अपने दक्षिण जाने की सूचना देकर मद्रास चली गयी।
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