उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“हाँ, लेकिन वह
सब यहाँ होता है। वहाँ - वहाँ चीजें॓ उलट जाती हैं, आदमी अपने को देखकर ही
प्रकृति के बारे में निर्णय करता है। और मेरा क्या भरोसा, कल रहूँ या न
रहूँ , यह सोचकर वह सब विचार स्थगित कर देता है। बल्कि इस विचार का सहारा
आवश्यक भी हो जाता है।”
रेखा ने विरोध करते हुए कहा, “लेकिन यह तो पलायन है, भुवन!”
“पलायन!” भुवन वही खोखली हँसी हँसा, “तो फिर?”
रेखा अचकचायी-सी उसे देखती रही। भुवन कहता है कि “तो फिर?” पलायन है, तो
फिर?...
भुवन
ही फिर बोला, “सुनो रेखा; बात यह है कि युद्ध बुरी चीज़ है, घृण्य है,
व्यक्तित्व के लिए घातक है - सब कुछ है। पर जब लड़ें ही, तब जो कुछ
रक्षणीय है उसे बचाने के लिए आवश्यक है कि युद्ध की मशीन ठीक से चले, सब
कल-पुर्जे ठीक काम करते रहें, हर व्यक्ति - हर पुर्ज़ा या जुज़ एक काम
लेता है और आवश्यक है कि उसे वह ठीक से करे। और ठीक से काम करने के लिए
आवश्यक होता है कि विचारों को स्थगित कर दिया जाये - चाहे जैसे भी। कोई
शराब पीकर करते हैं, कोई और भी भयानक तरीकों से - कोई इतना ही मानकर कि
जीवन कभी भी समाप्त हो सकता है और उसके बारे में सोचना व्यर्थ है -
कम-से-कम अभी व्यर्थ है, अभी जो अनुभव-संचय हो जाये, उसके आधार पर बाद में
भी सोचा जा सकता है।”
“पर भुवन, तुम-तुम? तुम्हारा तो सारा काम ही सोचने का है, तुम्हें तो
मारकाट नहीं करनी-तुम कैसे सोच स्थगित कर सकते हो?”
“वह
तो है, सोच तो नहीं स्थगित करता, पर सोचने की शक्ति की लीकें बाँधता हूँ -
सिर्फ़ काम के बारे में सोचता हूँ - मशीन को चलाने के बारे में सोचता हूँ,
मशीन के बाहर जो जीवन है, वह-वह तो जीवन है, इसलिए उसका भरोसा क्या? मेरी
बात समझीं?”
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