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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा ने भी थोड़ी देर बाद कुछ सँभल कर कहा, “मैं माफ़ी चाहती हूँ, भुवन - है यह मेरा दुस्साहस, पर अगर उससे मेरा अपराध कुछ कम होता हो तो कहूँ, मैंने मज़ाक नहीं किया, बहुत सीरियसली कह रही हूँ, क्योंकि मुझे लगा कि तुम इसी बात से पलायन कर रहे हो और वह पलायन ग़लत है।”

भुवन ने सतर्क स्वर से, किसी तरफ़ से भी रेखा की बात को न मानते हुए, न काटते हुए, पूछा, “तुम क्या कहना चाहती हो?”

“गौरा से मैं मिली थी, भुवन; उससे मैंने एक वायदा भी किया था जो - पूरा न निभा सकी। गौरा के मन को मैं जानती हूँ।”

भुवन ने न कुछ कहा न कुछ पूछा, चुपचाप उसकी ओर देखता रहा मानो कहता हो, तुम कहती चलो, मैं सुन रहा हूँ।

रेखा ने फिर कहा, “और मैं कहती हूँ, वह पलायन ग़लत है, भुवन!” सहसा नये निश्चय के साथ, “ग़लत है, अकरुण है और व्यर्थ है।”

भुवन ने वैसे ही दूर, पकड़ाई न देते हुए कहा, “तुम मुझे क्या करने को कह रही हो?”

“मैं? करने को?” रेखा क्षण-भर सोचती रही। “कुछ नहीं। केवल यही : तुम में जो सत्य है, उसके प्रति अपने को बन्द मत करो - उसके प्रति खुलो। तुमने मुझे सुनाया था - भुवन, तुमने! 'द पेन आफ़ लविंग यू' - उस व्यथा के प्रति अपने को खोल दो - और मुझमें कुछ कहता है कि वह तुम्हारे लिए कल्याणप्रद होगा, भुवन! गौरा के मन को मैं जानती हूँ क्योंकि स्त्री हूँ; और तुम्हारे मन को बिलकुल न जानती होऊँ, ऐसा तो तुम नहीं मानोगे; आख़िर स्त्री हूँ।”

रेखा जैसे हाँफ गयी थी। चुप हो गयी, लम्बे-लम्बे साँस लेने लगी। थोड़ी देर बाद जैसे पहले के किसी अधूरे वाक्य को पूरा करते हुए, उसने फिर कहा, “वह वरदान है, भुवन; उसे स्वीकार करो, चाहे कल जीवन न रहे, तुम न रहो, भुवन, फिर भी!”

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