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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा ने कहा, “स्त्री की बात हमेशा ग़लत होती है भुवन, सिवा एक मामले के, और वहाँ वह हमेशा ठीक होती है।” वह हँस दी। सहसा उसने झुककर ओठों से भुवन का माथा छुआ। “जल्दी अच्छे हो जाओ - दक्खिन जाना है।” और मुस्कराती हुई ही वह बाहर चली गयी। ओट होने तक भुवन उसे देखता रहा, फिर उसने करवट ली और आँखें बन्द कर लीं।

पर अगले दिन जब रेखा उसे देखने गयी तब वह दक्खिन जा चुका था। मालूम हुआ कि वह अच्छा हो रहा था, और उसे कन्वेलेसेंट छुट्टी पर करके आगे भेज दिया गया था, दो दिन में अस्पताली गाड़ी बंगलौर पहुँच जाएगी।

लौट कर रेखा ने गौरा को तार दे दिया।

10

कतार में लगी कैनवस की आराम-कुरसियों पर अस्पताली पाजामे और जाकेट पहने कई एक व्यक्ति लान में बैठे थे, पर गौरा को ढूँढ़ना नहीं पड़ा, बिना इधर-उधर देखे वह सीधे एक कुरसी की ओर बढ़ी चली गयी। पास पहुँचकर उसने धीमे, बहुत शान्त स्वर में कहा, “भुवन।”

भुवन पढ़ रहा था। सहसा चौंका और सिर उठाता हुआ पीछे मुड़ा।

“गौरा।”

गौरा ने धीरे-धीरे फिर कहा, “भुवन!” उसका स्वर भर्राया था। वह डेढ़ कदम आगे बढ़कर भुवन के पैरों के पास घास में बैठ गयी।

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