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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


हड़बड़ा कर गौरा ने कहा, “नहीं, नहीं भुवन, नहीं।” और उसके हाथ खींचने लगी, भुवन रुक गया पर उठा नहीं। उसे खींचने के लिए गौरा तनिक निकट बढ़ आयी थी, भुवन ने धीरे-से अपना सिर उसके पार्श्व में टेक दिया, गौरा ने एक-एक हाथ छुड़ा कर उसके सिर पर रखा और धीरे-धीरे बाल सहलाने लगी।

दो-चार दिन भुवन अस्पताल के अहाते में टहला था, फिर उसे बाहर जाने की अनुमति मिली तो गौरा उसे टैक्सी में घुमा लायी थी। दूसरे-तीसरे दिन एक संगीत-गोष्ठी में भी ले गयी थी। पर अपने यहाँ ले जाने की बात उसने तब तक नहीं की जब तक भुवन को अनुमति नहीं मिल गयी कि वह चाहे जहाँ जा सकता है, केवल अपने को थकाएगा नहीं, सावधानी से खाएगा, और रात के भोजन के समय वापस लौट जाएगा। तब गौरा फिर उसे लिवाने आयी, अस्पताल से वे टहलते हुए निकले; कुछ देर बाद गौरा ने पूछा, “भुवन, मेरे यहाँ चलोगे?”

भुवन ने एक बार उसकी ओर देखा और बिना उत्तर दिये ही उसके साथ मुड़ गया।

“मुड़ तो गये, यह भी जानते हो कि किधर जाना है?

भुवन ने भोलेपन से कहा, “न, तुम ले जा रही हो, मैं जा रहा हूँ। दैट इज़ आल आइ नो एंड आल आई नीड टु नो।” (इतना ही मैं जानता हूँ और इतना ही जानने की ज़रूरत है।)

“मेरा यहाँ तो क्या है, होटल का कमरा है एक। पहले भी वहाँ रह चुकी हूँ। पर थक तो नहीं जाओगे-टैक्सी लें?”

“बहुत दूर है? नहीं तो पैदल ही चलें-लौटते समय चाहे टैक्सी ले लूँगा। चलना अच्छा लगता है - नये सिरे से सीख रहा हूँ।”

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