उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
एक
बार फिर भुवन खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया। अब शायद दो-तीन मिनट ही उसके
पास हैं : और फिर साँझ हो जाएगी, मच्छरों से रक्षा की कार्रवाई शुरू हो
जाएगी - यन्त्र फिर उसे जकड़ लेगा। मानो चक्की के पाटों के बीच दाने को
क्षण-भर की स्वतन्त्रता मिल गयी थी - किन्तु कितना मूल्यवान् हो सकता है
ऐसा क्षण - सम्पर्क का क्षण।
मूल्यवान् क्षण?
मूल्यवान् किसके लिए?
सम्पर्क का क्षण?
किसके साथ सम्पर्क?
हाँ,
मूल्यवान् - नश्वर किन्तु मूल्यवान् जिनका सम्पर्क है सभी के लिए चिरन्तन
और मूल्यवान्; सम्पृक्त - जो प्रतीक्षा करते हैं उनसे सम्पृक्त, वे चाहे
बोलें या न बोलें; प्रश्न से सम्पृक्त और उसके उत्तर से सम्पृक्त - प्रश्न
चाहे न भी पूछा जाये, उत्तर चाहे न भी दिया जाये। मूल्यवान् और सम्पृक्त
क्षण क्यों कि प्रतीक्षा के क्षण - वह प्रतीक्षा चाहे कितनी लम्बी हो,
कर्म की इस अजस्र-प्रवाहिनी नदी से भी लम्बी; भुवन प्रतीक्षा करेगा, जैसे
कि, निस्सन्देह, गौरा भी प्रतीक्षा करेगी...। क्योंकि प्रतीक्षाएँ भी
अजस्र, अनाद्यन्त काल की नदी में स्थिर, शिलित समय के द्वीप हैं।