उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
8 पाठकों को प्रिय 390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन : भाग 1
1
गाड़ी
जब तक प्रतापगढ़ से नहीं चली, तब तक भुवन ने नहीं जाना कि उसे अपने बारे
में सोचने की कुछ ज़रूरत है; और गाड़ी चलने पर भी ठीक इस रूप में ही उसने
यह बात जानी हो, ऐसा भी नहीं; वह केवल हक्का-बक्का-सा चलती गाड़ी का हैंडल
पकड़े खड़ा रह गया-विस्मय से अपने मुक्त दूसरे हाथ की ओर देखता हुआ, मानो
वह उसका नहीं, कोई पराया हाथ हो जो किसी रहस्यमय क्रिया से उसके शरीर के
साथ लग गया हो और अब अपने और पराये के सन्धिस्थल उसकी कुहनी पर चुनचुनाहट
हो रही हो। वह सवार ही चलती गाड़ी पर हुआ था; उसके प्लेटफार्म पर खड़े रेखा से बातें करते-करते कब गाड़ी चल पड़ी थी यह उसे मालूम नहीं हुआ था, और अगर रेखा ही सहसा उसकी कुहनी पकड़ कर मुस्करा कर उसे ठेलती हुई न कहती-”अच्छा, जल्दी से सवार हो जाइए, आप की गाड़ी जा रही है,” तो वह ज़रूर गाड़ी से रह जाता।
और यहीं से उसके विस्मय का आरम्भ होता था। क्योंकि यद्यपि वास्तव में रेखा ने उसे ठेलकर गाड़ी पर सवार करा दिया था, तथापि उस बहुत हल्के धक्के में यही लगा था कि रेखा वास्तव में उसे कुहनी पकड़ कर खींच रही है : कि उसके शब्द और उसकी क्रिया भी उसके वास्तविक अभिप्राय को झुठला रहे हैं और वह वास्तव में उसे रोक ही लेना चाहती है। और जहाँ उसने भुवन की कुहनी को छुआ था, वहीं यह अद्भुत, अपूर्व-परिचित चुनचुनाहट हो रही थी-उसकी कुहनी में, जो सदा अपने साथियों पर हँसता आया है कि उन्हें स्त्री का सान्निध्य सहन नहीं होता, वे उसे सहज भाव से न ले पाकर उत्तेजित या अस्थिर हो उठते हैं-उसने यहाँ तक देखा है कि किसी स्त्री द्वारा चाय का प्याला दिया जाने पर लोगों के हाथ ऐसे काँपने लगें कि चाय छलक जाये!
और आज : एक स्त्री के द्वारा सहज भाव से ठेलकर गाड़ी पर सवार करा दिये जाने पर उसी की कुहनी में स्पर्शित स्थल पर चुनचुनाहट होने लगी है और वह यह रूमानी कल्पना कर रहा है कि रेखा ने वास्तव में उसे ठेला नहीं बल्कि खींचा था...भुवन बाबू, यों हक्के-बक्के अपने हाथ की ओर ताकते और अपनी कुहनी को पहचानते न खड़े रहिए, आख़िर आपको हुआ क्या है?...
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book