उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
बिना भोगे। लेकिन बिना
क्या भोगे? क्या उसी ने कोई कष्ट भोगा है, दुःख जाना है? बराबर ही तो
साधारण सहूलियत का जीवन उसने बिताया है - बड़े पैमाने पर ऐश नहीं की तो
दरिद्र होकर टुकड़ों को भी तो नहीं तरसा - ऐसे में दुःख भी अगर हो तो उसी
स्केल पर तो होगा, साधारण छोटा दुःख! पर यही तो असल बात है - यह साधारणपन
ही तो असली खा जाने वाला घुन है; यह तो सब से बड़ा, सब से चुभने वाला,
अकिंचनता की कसक से बराबर सालते रहने वाला दुःख है! 'तुम्हें साधारण से
बड़ा दुःख नहीं होगा' - यही तो बड़े आनन्द की, बड़े सुख की, विराट् की
अनुभूति की मौत का परवाना है। 'तुम्हें साधारण से बड़ा कुछ नहीं होगा!'
लेकिन
- क्या वह द्राविड़ प्राणायाम से भुवन वाले नतीजे पर पहुँचा है? क्या वह
भी बड़े दुःख की पूजा कर रहा है? नहीं, दुःख अपने आप में इष्ट है यह वह
कहाँ मानता है? लेकिन बड़ा दुःख बड़ी सम्भावना का द्योतक तो है; सम्भावना
हो, अनुभूति की सामर्थ्य हो, तभी तो बड़ी अनुभूति होगी...।
पर क्या
भुवन दुःख को इष्ट मानता है? क्या रेखा भी वैसा मानती है? विराट् अनुभूति
के प्रति खुले रहने का ही क्या वे अनुमोदन नहीं करते - विराट् के प्रति
समर्पित होने का?
रेखा क्षण के प्रति समर्पित होने की ही बात करती है। क्षण को ही विराट्
मानती है।
लेकिन
क्या सचमुच मानती है? क्या जब भी क्षण के प्रति आत्म-समर्पण का अवसर आया
है, उसने इनकार नहीं किया है? वह अपने को सँजो-सँजो कर रखती है, कोई
असूर्यम्पश्या भी इस तरह बचा-बचा कर कदम न रखती होगी - और बात करती है
क्षण के प्रति समर्पण की। जैसे भुवन अनुभूति से बचता है, और विराट् अनभूति
के प्रति समर्पण की बात करता है। असल में सब सिद्धान्त क्षतिपूरक होते हैं
: आप जो हैं, जैसे हैं, उससे ठीक उल्टा सिद्धान्त गढ़ कर उसका प्रचार करते
फिरते हैं। इससे एक तो आप अपने लिए एक सन्तुलन स्थापित कर लेते हैं, दूसरे
औरों को ग़लत लीक पर डाल देते हैं ताकि आप को ठीक-ठीक कोई पकड़ न पा सके।
रेखा ही कहती है कि मैं कुछ नहीं हूँ, जीवन के प्रवाह में एक अणु हूँ - पर
कितना अहं है उसमें, कि...।
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