उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
गौरा
पढ़ने में तेज़ थी। विज्ञान यद्यपि उसके लिये हुए विषयों में गौण ही स्थान
रखता था। मैट्रिक का साइंस होता ही क्या है? पर भुवन को साहित्य आदि में
भी यथेष्ट रुचि रही थी और इसलिए उसकी पढ़ाई गौरा के लिए जितनी उपयोगी थी
उसके लिए भी उतनी ही रुचिकर। पहले ही दिन तेरह वर्ष की इस लम्बी, कृशतनु,
गम्भीर गौरा को देखकर वह थोड़ी देर देखता रहा था, फिर उसने पूछा था, “सुना
है, तुमने स्वयं मुझे मास्टर चुना है-क्यों!”
गौरा ने आँखें नीची किये ही सिर हिला दिया था, “हाँ।”
“क्यों? मैं तो बड़ी कस कर पढ़ाई करूँगा। उतनी मेहनत करोगी?”
गौरा ने फिर वैसे ही सिर हिला दिया था।
गम्भीरता को तोड़ने के लिए भुवन ने पूछा था, “और अगर मेरे कान में किलकारी
मारी तो?”
एक
अवश मुस्कान सहसा उसके चेहरे पर बिखर गयी थी; उसका चेहरा ईषत् लाल हो आया
था। उस शब्दहीन खिलखिलाहट में भुवन ने सात-आठ वर्ष पहले की बालिका को
पहचान लिया था। फिर तत्काल ही गौरा ने आँचल से मुँह चाँप कर हँसी दबा ली
थी, थोड़ी देर बाद पहले-सी गम्भीर मुद्रा बना कर कहा था, “आप हिडिम्बा
कहेंगे?”
भुवन ने कुछ पसीज कर कहा था, “नहीं, लेकिन समझौता कर लो कि गौरा पार्वती
का नहीं, सरस्वती का नाम है। तभी विद्या आएगी।”
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