उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
चन्द्रमाधव ने सफ़ेद झूठ बोलते हुए कहा, “नहीं मिस गौरा,
मुझे धन्यवाद देने की कोई बात नहीं है-मास्टर साहब की ओर से भी नहीं,
क्योंकि ये नोट तो मेरे पहले के हैं। पिछले साल एक बार हमने अभिनय करने की
सोची थी, तब के। तब स्टेज की दृष्टि से भी विचार किया था।”
भुवन
ने भँवें उठा कर स्थिर दृष्टि से चन्द्रमाधव को देखा, एक बहुत दबी मुस्कान
उसके ओठों की कोर में ही खो गयी। फिर उसने गौरा की ओर मुड़ कर कहा,
“लीजिए, मेरा एलिबाई पक्का है न? मेरे लिए चन्द्र ने वह नहीं किया, अपने
ही लिए किया है।”
गौरा ने आँखें सकोच कर उसकी ओर क्षण-भर देखा,
मानो कहती हो, “जाइए!” फिर चन्द्रमाधव से पूछा, “तो आपने पोशाकों की बात
भी सोची होगी?”
“ज़रूर।”
“अच्छा, हमारी ड्रेस रिहर्सल तक
अगर आप यहाँ ठहरें तो एक बार आइएगा।” फिर भुवन की ओर मुड़कर, “मास्टर
साहब, उस दिन आप इन्हें भी साथ लाइएगा, मैं कह दूँगी।”
“यानी?”
“यानी यह कि निर्देशन आप करेंगे-आपको रोज़ आना पड़ेगा।” गौरा ने स्थिर
दृष्टि से उसे देखा, फिर कहा, “हाँ-आँ!”
भुवन
हँस दिया। चन्द्र ने कहा, “मैं अधिक तो ठहर नहीं रहा, अभी एक-आध दिन आ
सकता हूँ, फिर पीछे मास्टर साहब निर्देशन करते ही रहेंगे।”
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