उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लेकिन
भुवन को कोंचने के अवसर गौरा को अधिक न मिले; अगले सेशन में भुवन को
रिसर्च के लिए एक वृत्ति मिल गयी और वह बंगलोर चला गया। वहाँ दो वर्ष में
अपना प्रायोगिक काम पूरा करके उसने फिर नौकरी कर ली : थीसिस वह वहाँ से भी
लिख कर भेज सकेगा इसकी सुविधा उसे थी। छः महीने का काम उसके लिए अपेक्षित
था : उसके बाद थीसिस तो अगले वर्ष ही जायेगा, इसलिए काम कर लेना ही अच्छा
है...गौरा से पत्र-व्यवहार भी उसका बहुत अनियमित था; गौरा के पत्रों में
भी उस हठीले उत्साह का स्थान एक गाम्भीर्य ले रहा था और भुवन तो यों ही कम
लिखता था। उसकी धारणा थी कि अच्छा पत्र-व्यवहार कभी नियमित हो ही नहीं
सकता; जीवन में जब-तब ही पत्र लिखे जायें तभी अच्छे होते हैं।
चन्द्रमाधव
से गौरा का पत्र-व्यवहार भी अनियमित चलता रहा। चन्द्र उसे जब-तब पुस्तकें
या चित्र भेज देता; पत्र में ऐसे स्थलों के वर्णन भी जिनमें गौरा को
दिलचस्पी हो सके। इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के घर का, ताल-प्रदेश का जहाँ
वर्डस्वर्थ और कोलरिज की काव्य-प्रतिभा मुखरित हुई, फ्रांस के ह्यूगो के
स्मारक का, नोत्रदाम का, लूव्र संग्रहालय का; जर्मनी में गयटे के घर का,
ओबरामरगाउ के ईसा के जीवन-नाटक का...दो-एक अपने फोटो भी उसने भेजे थे,
पहले अव्यक्त आशा में कि गौरा भी उसे अपना फोटो भेजेगी, फिर इस स्पष्ट
प्रार्थना के साथ। गौरा ने अपना कोई फोटो नहीं भेजा था, पर दो-तीन पत्रों
के आग्रह के बाद 'ध्रुवस्वामिनी' का एक ग्रुप भेज दिया था जिसमें
अभिनेतृ-समुदाय के साथ भुवन भी था। पत्रों में वह प्रायः भुवन के समाचार
ही अधिक देती; अपने विषय में कम लिखती या लिखती तो कालेज की 'एक्टिविटीज़'
का वर्णन कर देती। चन्द्र के पत्रों में व्यक्तिगत अधिक होता, विदेशों में
मिले लोगों और विशेषकर स्त्रियों की बातें होती, और निरन्तर वहाँ की
स्वाधीनता और यहाँ के बन्धनों की तुलना और उस पर एक आक्रोश का स्वर उस के
पत्रों में पाया जाता। गौरा ने एक बार लिखा, “स्वाधीनता केवल सामाजिक गुण
नहीं है। वह एक दृष्टिकोण है, व्यक्ति के मानस की एक प्रवृत्ति है। हम
कहते हैं कि समाज हमें स्वाधीनता नहीं देता; पर समाज दे कैसे? हमीं तो
अपने दृष्टिकोण से समाज बनाते हैं। मैं अपने-आपको बद्ध नहीं मानती हूँ, और
स्वाधीनता के लिए अपने मन को ट्रेन करती हूँ। सफलता की बात नहीं जानती,
उतनी शक्ति मेरे भीतर होगी तो क्यों नहीं होऊँगी सफल? और मैं सोचती हूँ कि
सब लोग यत्नपूर्वक अपने को स्वाधीनता के लिए ट्रेन करें तो शायद हमारा
समाज भी स्वाधीन हो सके।”
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