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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


दूसरा निश्चय : मैं आगे पढ़ाई नहीं कर रही। संगीत के लिए आयी हूँ। एक वर्ष यहाँ और एक वर्ष मैसूर में रहूँगी, इतनी दूर स्पष्ट दीखता है, और इसमें इतना काम है कि आगे देखना अभी ज़रूरी नहीं जान पड़ता। यों यह भी लगता है कि असल चुनाव मैंने कर लिया है; आगे इतनी कड़ी परीक्षा अब न होगी।

भुवन दा, पलायन इधर भी हो सकता है, उधर भी। बिना मन के भीतर घुसे, केवल कर्म के आधार पर कोई निर्णय नहीं दिया जा सकता। आपने एक बार कहा था, “आत्मा के नक्शे नहीं होते कि हम चट से फैसला दे दें : इस सीमान्त के इधर स्वदेश, उधर विदेश, इधर पुण्य उधर पाप। आत्मा के प्रदेश में सीमान्त हर क्षण, हर साँस के साथ बदल सकता है क्योंकि हर क्षण एक सीमान्त है।”

वह बात आज समझ रही हूँ। जीवन एक बार का वरण नहीं है, वह अनन्त वरण है; प्रत्येक क्षण हम स्वीकार और परिहार करते चलते हैं।

भुवन दा, मैं भाग कर नहीं आयी, माँ के दुःख से भी नहीं। सामने काम है; और बड़ा अर्जेंट, बड़ा जरूरी काम। इसी झंझट में मैंने इतनी देर कर दी, पर आप ज़रूर-ज़रूर मेरी बात ठीक-ठीक समझेंगे और तब आपको यह देर भी अच्छी लगेगी।

आपकी कृतज्ञ
गौरा

पुनश्च :

अब मैं आप को नहीं बुलाऊँगी! अवकाश आप कहाँ बितायेंगे? कहीं पहाड़ चले जाइये। पिता जी मसूरी जाएँगे, वहीं आप जायें तो उनसे मिलिएगा, आपसे मिलकर उन्हें तसल्ली होगी।
गौरा

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