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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


नवतारा के चेहरे पर नजर डालकर मनोहर बाबू ने व्यंग्य से कहा, “अच्छा कर्म-ज्ञान है। सम्भवत: देश के काम में वह महिलाओं को यही शिक्षा देती फिरेंगी?”

सुमित्रा बोली, “उसके उत्तरदायित्व पर हमें विश्वास है। व्यक्ति विशेष के चरित्र की आलोचना करना हमारे नियमों के विरुद्ध है। जिस पति को वह प्रेम न कर सकी और इस महान कार्य के लिए उन्होंने जिसे छोड़ देना अन्याय नहीं समझा। अगर देश की महिलाओं को वह यही शिक्षा दे तो हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।”

“हमारे सीता-सावित्री के देश में क्या आप स्त्रियों को यही शिक्षा देंगी?”

सुमित्रा बोली- ”देना अनुचित नहीं है। महिलाओं के सामने अर्थहीन शब्द न कहकर अगर नवतारा कहे कि इस देश में एक दिन सीता को भी आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए पति को त्यागकर पाताल में जाना पड़ा था और राज-कन्या सावित्री ने दरिद्र सत्यवान को विवाह से पहले इतना प्यार किया था कि उसकी अल्प आयु के बारे में जानते हुए भी हिचकी नहीं और मैं स्वयं भी उस दुष्ट पति को प्यार नहीं कर सकी और उसे छोड़कर चली आई हूं। इसलिए मेरी जैसी अवस्था में तुम लोग भी वही करो। इस शिक्षा से तो देश की भलाई ही होगी मनोहर बाबू।”

मनोहर बाबू के होंठ क्रोध से कांपने लगे। पहले तो उनके मुंह से बात ही नहीं निकली। फिर बोला, “ऐसा होने पर देश नष्ट हो जाएगा। आप लोगों की जो इच्छा हो कीजिए, लेकिन दूसरों को ऐसी शिक्षा मत दीजिए। यूरोप की सभ्यता की हवा लगने से काफी क्षति हुई है। लेकिन महिलाओं में इस सभ्यता का प्रचार करके समूचे भारत वर्ष को रसातल में मत भेजिए।”

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