| उपन्यास >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
तुम्हारे ही दम से तो यह रौनकें हैं। तुमने स्वयं ही तो बताया था कि शुरू-शुरू में तुम्हें किस तरह के ताने मिलते थे। तुम्हारी ननदें, तुम्हारे देवर, तुम्हारी ससुराल के औऱ रिश्तेदार मुझे इस घर में सहन ही नहीं कर सकते थे। 
मगर तुमने सब की बातें सहीं, सब की सुनीं और इन सारे तूफानों में मुझे समेटे रहीं।
आखिर तुम करतीं भी तो क्या ? इस इतनी बडी़ दुनियाँ में मेरा था ही कौन? 
इतनी बदकिस्मत थी मैं भी कि जन्म लेने के दो तीन वर्षों में ही माँ-बाप चले गये। 
भाई तो था ही नहीं- केवल तुम थीं। तुमने ही मुझे गोद लेकर बडा़ किया। 
फिर तुम्हारे भी बच्चे हुए। 
इस इतने बडे़ परिवार की मैं भी तो एक अटूट अंग बन गई थी। घर भर में किसी से मेरा कोई रिश्ता न था। उस घर पर मेरा कोई अधिकार न था। 
तुम्हारे सहारे रही-बड़ी हुई। इतना कुछ बन पायी। तुमने मेरे लिए स्वयं अपने जीवन के कितने सपने कुर्बान कर दिये और कितने अरमानों से आज के इस दिन का इन्तजार किया। 
मुझे एक-एक बात याद है दीदी, एक-एक बात याद है। 
मुझे कुछ भी तो नहीं भूला। 
			
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