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जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा

रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा

रामप्रसाद बिस्मिल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9718
आईएसबीएन :9781613012826

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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा



दुर्दिन


अनेक प्रयत्न  करने के पश्चा त् शाहाजहाँपुर में एक अत्तार महोदय की दुकान पर श्रीयुत् नारायणलाल जी को तीन रुपये मासिक वेतन की नौकरी मिली। तीन रुपये मासिक में दुर्भिक्ष के समय चार प्राणियों का किस प्रकार निर्वाह हो सकता था ? दादीजी ने बहुत प्रयत्ना किया कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाय, किन्तु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किन्तु फिर भी गुजारा न हुआ तब आधा बथुआ, चना या कोई दूसरा साग, जो सब से सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा-सा नमक डालकर उसे स्वयं खाती, लड़कों को चना या जौ की रोटी देतीं और इसी प्रकार दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधे पेट खाकर दिन तो कट जाता, किन्तु पेट में घोटूँ दबाकर रात काटना कठिन हो जाता। यह तो भोजन की अवस्था थी, वस्त्रर तथा रहने के स्थान का किराया कहाँ से आता ?

दादाजी ने चाहा कि भले घरों में मजदूरी ही मिल जाए, किन्तु अनजान व्यक्तिे का, जिसकी भाषा भी अपने देश की भाषा से न मिलती हो, भले घरों में सहसा कौन विश्वानस कर सकता था ? कोई मजदूरी पर अपना अनाज भी पीसने को न देता था ! डर था कि दुर्भिक्ष का समय है, खा लेगी। बहुत प्रयत्न  करने के बाद एक-दो महिलाएं अपने घर पर अनाज पिसवाने पर राजी हुईं, किन्तु पुरानी काम करने वालियों को कैसे जवाब दें ? इसी प्रकार अड़चनों के बाद पाँच-सात सेर अनाज पीसने को मिल जाता, जिसकी पिसाई उस समय एक पैसा प्रति पंसेरी थी। बड़े कठिनता से आधे पेट एक समय भोजन करके तीन-चार घण्टों तक पीसकर एक पैसा या डेढ़ पैसा मिलता। फिर घर पर आकर बच्चों के लिए भोजन तैयार करना पड़ता। तो-तीन वर्ष तक यही अवस्था रही।

बहुधा दादाजी देश को लौट चलने का विचार प्रकट करते, किन्तु दादीजी का यही उत्तर होता कि जिनके कारण देश छूटा, धन-सामग्री सब नष्टह हुई और ये दिन देखने पड़े अब उन्हीं के पैरों में सिर रखकर दासत्व स्वीकार करने से इसी प्रकार प्राण दे देना कहीं श्रेष्ठा है, ये दिन सदैव न रहेंगे। सब प्रकार के संकट सहे किन्तु दादीजी देश को लौटकर न गई।

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