जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथारामप्रसाद बिस्मिल
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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा
पलायनावस्था
मैं ग्राम में ग्रामवासियों की भांति उसी प्रकार के कपड़े पहनकर रहने लगा। देखने वाले अधिक से अधिक इतना समझ सकते थे कि मैं शहर में रह रहा हूँ, सम्भव है कुछ पढ़ा भी होऊँ। खेती के कामों में मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया। शरीर तो हष्टो-पुष्टक था ही, थोड़े ही दिनों में अच्छा-खासा किसान बन गया। उस कठोर भूमि में खेती करना कोई सरल काम नहीं। बबूल, नीम के अतिरिक्तन कोई एक-दो आम के वृक्ष कहीं भले ही दिखाई दे जाएँ। बाकी यह नितान्त मरुभूमि है। खेत में जाता था। थोड़ी ही देर में झरबेरी के कांटों से पैर भर जाते। पहले-पहल तो बड़ा कष्ट प्रतीत हुआ। कुछ समय पश्चा त् अभ्यास हो गया। जितना खेत उस देश का एक बलिष्ठु पुरुष दिन भर जोत सकता था, उतना मैं भी जोत लेता था। मेरा चेहरा बिल्कुल काला पड़ गया। थोड़े दिनों के लिये मैं शाहजहाँपुर की ओर घूमने आया तो कुछ लोग मुझे पहचान भी न सके ! मैं रात को शाहजहाँपुर पहुँचा। गाड़ी छूट गई। दिन के समय पैदल जा रहा था कि एक पुलिस वाले ने पहचान लिया। वह और पुलिस वालों को लेने के लिए गया। मैं भागा, पहले दिन का ही थका हुआ था। लगभग बीस मील पहले दिन पैदल चला था। उस दिन भी पैंतीस मील पैदल चलना पड़ा।
मेरे माता-पिता ने सहायता की। मेरा समय अच्छी प्रकार व्यतीत हो गया। माताजी की पूँजी तो मैंने नष्टक कर दी। पिताजी से सरकार की ओर से कहा गया कि लड़के की गिरफ्तारी के वारंट की पूर्ति के लिए लड़के का हिस्सा, जो उसके दादा की जायदाद होगी, नीलाम किया जाएगा। पिताजी घबड़ाकर दो हजार के मकान को आठ सौ में तथा और दूसरी चीजें भी थोड़े दामों में बेचकर शाहजहाँपुर छोड़कर भाग गए। दो बहनों का विवाह हुआ। जो कुछ रहा बचा था, वह भी व्यय हो गया। माता-पिता की हालत फिर निर्धनों जैसी हो गई। समिति के जो दूसरे सदस्य भागे हुए थे, उनकी बहुत बुरी दशा हुई। महीनों चनों पर ही समय काटना पड़ा। दो चार रुपये जो मित्रों तथा सहायकों से मिल जाते थे, उन्हीं पर ही गुजर होता था। पहनने के कपड़े तक न थे। विवश हो रिवाल्वर तथा बन्दूकें बेचीं, तब दिन कटे। किसी से कुछ कह भी न सकते थे और गिरफ्तारी के भय के कारण कोई व्यवस्था या नौकरी भी न कर सकते थे।
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