जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथारामप्रसाद बिस्मिल
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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा
कुछ नवयुवकों ने मिलकर आर्य-समाज मन्दिर में आर्य कुमार सभा खोली थी, जिनके साप्ताआहिक अधिवेशन प्रत्येक शुक्रवार को हुआ करते थे। वहीं पर धार्मिक पुस्तरकों का पाठन, विषय विशेष पर निबन्ध-लेखन और पाठन तथा वाद-विवाद होता था। कुमार-सभा से ही मैंने जनता के सम्मुख बोलने का अभ्यास किया। बहुधा कुमार-सभा के नवयुवक मिलकर शहर के मेलों में प्रचारार्थ जाया करते थे। बाजारों में व्याख्यान देकर आर्य-समाज के सिद्धान्तों का प्रचार करते थे। ऐसा करते-करते मुसलमानों से बुबाहसा होने लगा। अतएव पुलिस ने झगड़े का भय देखकर बाजारों में व्याख्यान देना बन्द करवा दिया। आर्य-समाज के सदस्यों ने कुमार-सभा के प्रयत्ना को देखकर उस पर अपना शासन जमाना चाहा, किन्तु कुमार किसी का अनुचित शासन कब मानने वाले थे ! आर्यसमाज के मन्दिर में ताला डाल दिया गया कि कुमार-सभा वाले आर्यसमाज मन्दिर में अधिवेशन न करें। यह भी कहा गया कि यदि वे वहाँ अधिवेशन करेंगे, तो पुलिस को बुलाकर उन्हें मन्दिर से निकलवा दिया जाएगा।
कई महीनों तक हम लोग मैदान में अपनी सभा के अधिवेशन करते रहे, किन्तु बालक ही तो थे, कब तक इस प्रकार कार्य चला सकते थे? कुमार-सभा टूट गई। तब आर्य-समाजियों को शान्ति हुई। कुमार-सभा ने अपने शहर में तो नाम पाया ही था। जब लखनऊ में कांग्रेस हुई तो भारतवर्षीय कुमार सम्मेलन का भी वार्षिक अधिवेशन वहाँ हुआ। उस अवसर पर सबसे अधिक पारितोषिक लाहौर और शाहजहांपुर की कुमार सभाओं ने पाए थे, जिनकी प्रशंसा समाचार-पत्रों मंर प्रकाशित हुई थी। उन्हीं दिनों मिशन स्कूल के एक विद्यार्थी से मेरा परिचय हुआ। वह कभी-कभी कुमार-सभा में आ जाया करते थे। मेरे भाषण का उन पर अधिक प्रभाव हुआ। वैसे तो वह मेरे मकान के निकट ही रहते थे, किन्तु आपस में कोई मेल न था। बैठने-उठने से आपस में प्रेम बढ़ गया। वह एक ग्राम के निवासी थे। जिस ग्राम में उनका घर था वह ग्राम बड़ा प्रसिद्ध है। बहुत से लोगों के यहां बन्दूक तथा तमंचे भी रहते हैं, जो ग्राम में ही बन जाते हैं। ये सब टोपीदार होते हैं, उन महाशय के पास भी एकनली का छोटा-सा पिस्तौल था जिसे वह अपने साथ शहर में रखते थे। जब मुझसे अधिक प्रेम बढ़ा तो उन्होंने वह पिस्तौल मुझे रखने के लिए दिया। इस प्रकार के हथियार रखने की मेरी उत्कट इच्छा थी, क्योंकि मेरे पिता के कई शत्रु थे, जिन्होंने अकारण ही पिताजी पर लाठियों का प्रहार किया था। मैं चाहता था कि यदि पिस्तौल मिल जाए तो मैं पिताजी के शत्रुओं को मार डालूं ! यह एक नाली का पिस्तौल वह महाशय अपने पास रखते तो थे, किन्तु उसको चलाकर न देखा था। मैंने उसे चलाकर देखा तो वह नितान्त बेकार सिद्ध हुआ। मैंने उसे ले जाकर एक कोने में डाल दिया।
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