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जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा

रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा

रामप्रसाद बिस्मिल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9718
आईएसबीएन :9781613012826

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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा

इस स्थान पर मैं महात्मा कबीरदास के कुछ अमृत वचनों का उल्लेख करता हूँ जो मुझे बड़े प्रिय तथा शिक्षाप्रद मालूम हुए –

'कबिरा' शरीर सराय है भाड़ा देके बस।
जब भठियारी खुश रहै तब जीवन का रस ॥१॥
'कबिरा' क्षुधा है कूकरी करत भजन में भंग।
याको टुकरा डारि के सुमिरन करो निशंक ॥२॥
नींद निसानी नीच की उट्ठ 'कबिरा' जाग।
और रसायन त्याग के नाम रसाय चाख ॥३॥
चलना है रहना नहीं चलना बिसवें बीस।
'कबिरा' ऐसे सुहाग पर कौन बँधावे सीस ॥४॥
अपने अपने चोर को सब कोई डारे मारि।
मेरा चोर जो मोहिं मिले सरवस डारूँ वारि ॥५॥
कहे सुने की है नहीं देखा देखी बात।
दूल्हा दुल्हिन मिलि गए सूनी परी बरात ॥६॥
नैनन की करि कोठरी पुतरी पलँग बिछाय।
पलकन की चिक डारि के पीतम लेहु रिझाय ॥७॥
प्रेम पियाला जो पिये सीस दच्छिना देय।
लोभी सीस न दै सके, नाम प्रेम का लेय ॥८॥
सीस उतारे भुँइ धरै तापे राखै पाँव।
दास 'कबिरा' यूं कहे ऐसा होय तो आव ॥९॥
निन्दक नियरे राखिये आँखन कुई छबाय।
बिन पानी साबुन बिना उज्जवल करे सुभाय ॥१०॥

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