जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथारामप्रसाद बिस्मिल
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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा
दिल्ली कांग्रेस से लौटकर शाहजहाँपुर आये। वहां भी पकड़-धकड़ शुरू हुई। हम लोग वहाँ से चलकर दूसरे शहर के एक मकान में ठहरे हुये थे। रात्रि के समय मकान मालिक ने बाहर से मकान में ताला डाल दिया। ग्यारह बजे के लगभग हमारा एक साथी बाहर से आया। उसने बाहर से ताला पड़ा देख पुकारा। हम लोगों को भी सन्देह हुआ, सब के सब दीवार पर से उतर कर मकान छोड़ कर चल दिए। अंधेरी रात थी। थोड़ी दूर गए थे कि हठात् की आवाज आई - 'खड़े हो जाओ, कौन जाता है?'
हम लोग सात-आठ आदमी थे, समझे कि घिर गए। कदम उठाना ही चाहते थे कि फिर आवाज आई - 'खड़े हो जाओ, नहीं तो गोली मारते हैं'।
हम लोग खड़े हो गए। थोड़ी देर में एक पुलिस का दारोगा बन्दूक हमारी तरफ किए हुए, रिवाल्वर कन्धे पर लटकाए, कई सिपाहियों को लिए हुए आ पहुँचे। पूछा - 'कौन हो? कहाँ जाते हो?'
हम लोगों ने कहा - विद्यार्थी हैं, स्टेशन जा रहे हैं।
'कहां जाओगे'?
'लखनऊ'।
उस समय रात के दो बजे थे। लखनऊ की गाड़ी पाँच बजे जाती थी। दारोगा जी को शक हुआ। लालटेन आई, हम लोगों के चेहरे रोशनी में देखकर उनका शक जाता रहा। कहने लगे - 'रात के समय लालटेन लेकर चला कीजिए। गलती हुई, मुआफ कीजिये'।
हम लोग भी सलाम झाड़कर चलते बने।
एक बाग में फूँस की मड़ैया पड़ी थी। उस में जा बैठे। पानी बरसने लगा। मूसलाधार पानी गिरा। सब कपड़े भीग गए। जमीन पर भी पानी भर गया। जनवरी का महीना था, खूब जाड़ा पड़ रहा था। रात भर भीगते और ठिठुरते रहे। बड़ा कष्टप हुआ। प्रातःकाल धर्मशाला में जाकर कपड़े सुखाये। दूसरे दिन शाहजहाँपुर आकर, बन्दूकें जमीन में गाड़कर प्रयाग पहुंचे।
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