जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथारामप्रसाद बिस्मिल
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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा
इन्हीं विचारों में निमग्न यमुना-तट पर बड़ी देर तक घूमता रहा। ध्यान आया कि धर्मशाला में चलकर ताला तोड़ सामान निकालूँ। फिर सोचा कि धर्मशाला जाने से गोली चलेगी, व्यर्थ में खून होगा। अभी ठीक नहीं। अकेले बदला लेना उचित नहीं। और कुछ साथियों को लेकर फिर बदला लिया जाएगा।
मेरे एक साधारण मित्र प्रयाग में रहते थे। उनके पास जाकर बड़ी मुश्किल से एक चादर ली और रेल से लखनऊ आया। लखनऊ आकर बाल बनवाये। धोती-जूता खरीदे, क्योंकि रुपये मेरे पास थे। रुपये न भी होते तो भी मैं सदैव जो चालीस पचास रुपये की सोने की अंगूठी पहने रहता था, उसे काम में ला सकता था। वहां से आकर अन्य सदस्यों से मिलकर सब विवरण कह सुनाया। कुछ दिन जंगल में रहा। इच्छा थी कि सन्यासी हो जाऊं। संसार कुछ नहीं। बाद को फिर माता जी के पास गया। उन्हें सब कह सुनाया। उन्होंने मुझे ग्वालियर जाने का आदेश दिया। थोड़े दिनों में माता-पिता सभी दादीजी के भाई के यहां आ गये। मैं भी पहुंच गया।
मैं हर वक्त यही विचार किया करता कि मुझे बदला अवश्य लेना चाहिए। एक दिन प्रतिज्ञा करके रिवाल्वर लेकर शत्रु की हत्या करने की इच्छा में गया भी, किन्तु सफलता न मिली। इसी प्रकार उधेड़-बुन में मुझे ज्वर आने लगा। कई महीनों तक बीमार रहा। माता जी मेरे विचारों को समझ गई। माता जी ने बड़ी सान्त्वना दी। कहने लगी कि प्रतिज्ञा करो कि तुम अपनी हत्या की चेष्टा् करने वालों को जान से न मारोगे। मैंने प्रतिज्ञा करने में आनाकानी की, तो वह कहने लगी कि मैं मातृऋण के बदले में प्रतिज्ञा कराती हूँ, क्या जवाब है? मैंने उनसे कहा - "मंप उनसे बदला लेने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।" माता जी ने मुझे बाध्य कर मेरी प्रतिज्ञा भंग करवाई। अपनी बात पक्की रखी। मुझे ही सिर नीचा करना पड़ा। उस दिन से मेरा ज्वर कम होने लगा और मैं अच्छा हो गया।
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