जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथारामप्रसाद बिस्मिल
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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा
इस दल ने विदेश से अस्त्र प्राप्त् करने का बड़ा उत्तम सूत्र प्राप्तद किया था, जिससे यथारुचि पर्याप्ता अस्त्र् मिल सकते थे। उन अस्त्रोंद के दाम भी अधिक न थे। अस्त्रर भी पर्याप्त् संख्या में बिलकुल नये मिलते थे। यहां तक प्रबन्ध हो गया था कि हम लोग रुपये का उचित प्रबन्ध कर देंगे, और यथा समय मूल्य निपटा दिया करेंगे, तो हमको माल उधार भी मिल जाया करेगा और हमें जब किसी प्रकार के जितनी संख्या में अस्त्रों की आवश्यकता होगी, मिल जाया करेंगे। यही नहीं, समय आने पर हम विशेष प्रकार की मशीन वाली बन्दूकें भी बनवा सकेंगे। इस समय समिति की आर्थिक अवस्था बड़ी खराब थी। इस सूत्र के हाथ लग जाने और इसके लाभ उठाने की इच्छा होने पर भी बिना रुपये के कुछ होता दिखलाई न पड़ता था। रुपये का प्रबन्ध करना नितान्त आवश्यदक था। किन्तु वह हो कैसे? दान कोई न देता था। कर्ज भी न मिलता था, और कोई उपाय न देख डाका डालना तय हुआ। किन्तु किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति (private property) पर डाका डालना हमें अभीष्टत न था। सोचा, यदि लूटना है तो सरकारी माल क्यों न लूटा जाये? इसी उधेड़बुन में एक दिन मैं रेल में जा रहा था। गार्ड के डिब्बे के पास गाड़ी में बैठा था। स्टेशन मास्टर एक थैली लाया, और गार्ड के डिब्बे में डाल दिया। कुछ खटपट की आवाज हुई। मैंने उतर कर देखा कि एक लोहे का सन्दूक रखा है। विचार किया कि इसी में थैली डाली होगी। अगले स्टेशन पर उसमें थैली डालते भी देखा। अनुमान किया कि लोहे का सन्दूक गार्ड के डिब्बे में जंजीर से बंधा रहता होगा, ताला पड़ा रहता होगा, आवश्यकता होने पर ताला खोलकर उतार लेते होंगे।
इसके थोड़े दिनों बाद लखनऊ स्टेशन पर जाने का अवसर प्राप्तड हुआ। देखा एक गाड़ी में से कुली लोहे के, आमदनी वाले सन्दूक उतार रहे हैं। निरीक्षण करने से मालूम हुआ कि उसमें जंजीरें ताला कुछ नहीं पड़ता, यों ही रखे जाते हैं। उसी समय निश्चेय किया कि इसी पर हाथ मारूंगा।
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