उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“दोनों ही एक-से हैं।” कहकर राजलक्ष्मी भीतर चली गयी। कहती गयी, “काम-काज करे तो कब? हरामजादी छुट्टी दे तब न!”
वास्तव में, असह्य हो गया था; इनकी गाली-गलौज और मार-पीट का मुकद्दमा मैंने और भी दो-एक बार किया है, पर जब कोई फल नहीं हुआ तब सोचा कि खाना-पीना हो जाने के बाद बुलवाकर आज आखिरी कर दूँगा। पर बुलाना न पड़ा, दोपहर को ही मुहल्ले के स्त्री-पुरुषों- से घर भर गया। नवीन ने कहा, “बाबूजी, उसको मैं नहीं चाहता- बिगड़ी हुई औरत है। वह मेरे घर से निकल जाय।”
मुखरा मालती ने घूँघट के भीतर से कहा, “वह मेरा साँखा-नोआ¹ खोल दे।” (¹ शंख और लोहे की बनी एक प्रकार की चूड़ी जो बंगालियों में सुहाग का चिह्न समझी जाती है।)
नवीन ने कहा, “तू मेरी चाँदी की पौंची लौटा दे।”
मालती ने उसी वक्त अपने हाथों से पौंची उतारकर फेंक दी।
नवीन ने उसे उठाकर कहा, “मेरा टीन का बकस भी तू नहीं रख सकती।”
मालती ने कहा, “मैं नहीं जानती।” यह कहकर उसने आँचल से चाबी खोलकर उसे पैरों के पास फेंक दी।
नवीन ने इस पर वीर-दर्प के साथ आगे बढ़कर मालती के 'साँखा' पट-पट करके तोड़ दिये; और 'नोआ' खोलकर दीवार के उस तरफ फेंक दिया। बोला, “जा, तुझे विधवा कर दिया।”
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