उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मेंढक ने हँसकर कहा, “साहब क्या अपने वश बना हूँ भाई! रेलवे कन्स्ट्रक्शन में सब-ओवरसियरी का काम करता हूँ, कुली चराने में ही जिन्दगी बीती जा रही है, हैट-कोट के बिना गुजर कहाँ? नहीं तो, एक दिन वे ही मुझे चराकर अलग कर दें। सोपलपुर में जरा काम था, वहीं से लौट रहा हूँ- करीब एक मील पर मेरा तम्बू है, साँइथिया से जो नयी लाइन निकल रही है, उसी पर मेरा काम है। चलोगे मेरे डेरे पर? चाय पीकर चले आना।”
नामंजूर करते हुए मैंने कहा, “आज नहीं, और किसी दिन मौका मिला तो आऊँगा।”
उसके बाद मेंढक बहुत-सी बातें पूछने लगा। तबीयत कैसी रहती है, कहाँ रहते हो, यहाँ किस काम से आये हो, बाल-बच्चे कितने हैं, कैसे हैं, वगैरह-वगैरह।
जवाब में मैंने कहा, तबीयत ठीक नहीं रहती, रहता हूँ गंगामाटी में, यहाँ आने के बहुत से कारण हैं, जो अत्यन्त जटिल हैं। बाल-बच्चा कोई नहीं है, लिहाजा यह प्रश्न ही निरर्थक है।
मेंढक सीधा-साधा आदमी है। मेरा जवाब ठीक न समझ सकने पर भी, ऐसा दृढ़ संकल्प उसमें नहीं है कि दूसरे की सब बातें समझनी ही चाहिए। वह अपनी ही बात कहने लगा। जगह स्वास्थ्यकर है, साग-सब्जी मिलती है, मछली और दूध भी कोशिश करने पर मिल जाता है, पर यहाँ आदमी नहीं हैं, साथी-सँगी कोई नहीं। फिर भी विशेष तकलीफ नहीं, कारण शाम के बाद जरा नशा-वशा कर लेने से काम चल जाता है। साहब लोग कैसे भी हों, पर बंगालियों से बहुत अच्छे हैं- टेम्परेरी तौर पर एक ताड़ी का शेड खोला गया है-जितनी तबीयत आवे, पीओ। पैसे तो एक तरह से लगते ही नहीं समझ लो- सब अच्छा ही है- कन्स्ट्रक्शन में ऊपरी आमदनी भी है, और चाहूँ तो तुम्हारे लिए भी साहब से कह-सुनकर आसानी से एक नौकरी दिलवा सकता हूँ- इसी तरह की अपने-सौभाग्य की छोटी-बड़ी बहुत-सी बातें वह कहता रहा। फिर अपने गठियावाले घोड़े की लगाम पकड़े मेरे साथ-साथ वह बहुत दूर तक बकता हुआ चला। बार-बार पूछने लगा कि मैं कब तक उसके डेरे पर पधारूँगा, और मुझे भरोसा दिया कि पोड़ापाटी में उसे अकसर अपने काम से जाना पड़ता है, लौटते वक्त वह किसी दिन मेरे यहाँ गंगामाटी में जरूर हाजिर होगा।
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