उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उसने जवाब दिया, “दो-तीन बार कहा है आपसे कि घी निबट गया है, आदमी भेजिए। आप न भेजें तो इसमें मेरा क्या दोष?”
घर-खर्च के लिए मामूली घी यहीं मिल जाता है, पर मेरे लिए आता है साँइथिया के पास के किसी गाँव से। आदमी भेजकर मँगाना पड़ता है। घी की बात या तो अन्यमनस्कता के कारण राजलक्ष्मी ने सुनी नहीं, या फिर वह भूल गयी। उससे पूछा, “कब से नहीं है महाराज?”
“हो गये पाँच-सात दिन।”
“तो पाँच-सात दिन से इन्हें भात खिला रहे हो?”
रतन को बुलाकर कहा, “मैं भूल गयी तो क्या तू नहीं मँगा सकता था? क्या इस तरह सभी मिलकर मुझे तंग कर डालोगे?”
रतन भीतर से अपनी माँजी पर बहुत खुश न था। दिन-रात घर छोड़कर अन्यत्र रहने और खासकर मेरी तरफ से उदासीन हो जाने से उसकी नाराजगी हद तक पहुँच चुकी थी। मालकिन के उलाहने के उत्तर में उसने भले आदमी का सा मुँह बनाकर कहा, “क्या जानूँ माँजी, तुमने सुनी-अनसुनी कर दी तो मैंने सोचा कि बढ़िया कीमती घी की शायद अब जरूरत न हो। तभी तो भला पाँच-छह दिन से मैं कमजोर आदमी को भात खाने देता?”
राजलक्ष्मी के पास इसका जवाब ही न था, इसलिए नौकर से इतनी बड़ी चुभने वाली बात सुनकर भी वह बिना कुछ जवाब दिये चुपके से उठकर चली गयी?
रात को बिस्तर पर पड़े-पड़े बहुत देर तक छटपटाते रहने के बाद शायद कुछ झपकी-सी लगी होगी, इतने में राजलक्ष्मी दरवाजा खोलकर भीतर आई और मेरे पाँयते के पास बहुत देर तक चुपचाप बैठी रही; फिर बोली, “सो गये क्या?”
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