उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने पूछा, “मेरी राय न होने से क्या होगा?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “तो फिर नहीं होगा।”
मैंने कहा, “तो इसका विचार छोड़ दो, मेरी राय नहीं है।”
“रहने दो- मजाक मत करो।”
“मज़ाक नहीं, सचमुच ही मेरी राय नहीं है- मैं मनाही करता हूँ।”
मेरी बात सुनकर राजलक्ष्मी के चेहरे पर बादल घिर आये। क्षण-भर स्तब्ध रहकर वह बोली, “पर हम लोगों ने तो सब तय कर लिया है। चीज-वस्तु मँगाने के लिए आदमी भेज दिये हैं, कल हविष्य करके परसों से- वाह अब मनाही करने से कैसे होगा? सुनन्दा के सामने मैं मुँह कैसे दिखाऊँगी छोटे महाराज? वाह! यह सिर्फ तुम्हारी चालाकी है। मुझे झूठमूठ खिझाने के लिए- सो नहीं होगा, तुम बताओ, तुम्हारी राय है?”
मैंने कहा, “है। मगर तुम किसी दिन भी तो मेरी राय गैर-राय की परवाह नहीं करती लक्ष्मी, फिर आज ही क्यों अचानक मजाक करने चली आईं? मेरा आदेश तुम्हें मानना ही होगा, यह दावा तो मैंने तुमसे कभी किया नहीं।”
राजलक्ष्मी ने मेरे पैरों पर हाथ रखकर कहा, “अब कभी न होगा, सिर्फ अबकी बार खुशी मन से मुझे हुक्म दे दो।”
मैंने कहा, “अच्छा। लेकिन तड़के ही शायद तुम्हें जाना पड़ेगा। अब और रात मत बढ़ाओ, सोने जाओ।”
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