उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उसने जवाब दिया, “घर लौट जाऊँगा।”
“पर ऐसे बेवक्त मेरे लिए क्या उपाय है?”
पहले ही कह चुका हूँ कि लड़का अत्यन्त स्पष्टवादी है। बोला, “तुम बाबू उतर जाओ। मामा ने कह दिया है, किराया सवा रुपया ले लेना। कमती लेने से वे मुझे मारेंगे।”
मैंने कहा, “मेरे लिए तुम मार खाओगे, यह कैसी बात!”
एक बार सोचा कि इसी गाड़ी से यथास्थान लौट जाऊँ। मगर न जाने कैसी तबीयत हुई, लौटने का मन नहीं हुआ। रात हो रही है, अपरिचित स्थान है, गाँव-बस्ती कहाँ और कितनी दूर है, सो भी जानने का कोई उपाय नहीं। सिर्फ सामने एक बड़ा-सा आम-कटहल का बाग देखकर अनुमान किया कि गाँव शायद बहुत ज्यादा दूर न होगा। कोई न कोई आश्रय तो मिल ही जायेगा और अगर नहीं मिला, तो उससे क्या? न हो तो इस बार की यात्रा ऐसे ही सही।
उतरकर किराया चुका दिया। देखा कि लड़के की कोरम-कोर बात ही नहीं, अपनी बात पर अमली कार्रवाई करने का भी बिल्कुल स्पष्ट है। पलक मारते ही उसने गाड़ी का मुँह फेर दिया, और बैल भी घर लौटने का इशारा पाते ही पल-भर में आँखों से ओझल हो गये।
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