उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
सुबह जागने पर पहले उसकी खाट की ओर नजर डाली तो मालूम हुआ कि राजलक्ष्मी कमरे में नहीं है। रात को वह आई ही नहीं, या बड़े तड़के ही उठकर बाहर चली गयी, यह भी मैं न समझ सका। बाहरी कमरे में जाकर देखा तो वहाँ कुछ कोलाहल-सा हो रहा है। रतन केटली से गरम चाय पात्र में डाल रहा है और उसके पास ही बैठी राजलक्ष्मी स्टोव पर सिंघाड़े और कचौरियाँ तल रही है। वज्रानन्द खाद्य-सामग्री की ओर अपनी निस्पृह निरासक्त दृष्टि से देख रहे हैं। मुझे आते देख राजलक्ष्मी ने अपने भीगे बालों पर आँचल खींच लिया और वज्रानन्द कलरव कर उठे, “आ गये भाई, आपको देरी होते देख समझा था कि कहीं सब कुछ ठण्डा न हो जाय।”
राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, “हाँ, तुम्हारे पेट में जाकर सब ठण्डा हो जाता।”
आनन्द ने कहा, “बहन, साधु-संन्यासी का आदर करना सीखिए। ऐसी कड़ी बात न कहिए।”
फिर मुझसे कहा, “कहो, तबीयत तो ठीक नहीं दिखती, जरा हाथ तो देखूँ।”
राजलक्ष्मी ने घबराकर कहा, “रहने दो आनन्द, तुम्हारी डॉक्टरी की जरूरत नहीं है; उनकी तबीयत ठीक है।”
“यही निश्चय करने के लिए तो एक बार हाथ...”
राजलक्ष्मी बोली, “नहीं, तुम्हें हाथ देखने की जरूरत नहीं। तुम्हें क्या लगता है, अभी साबूदाने की व्यवस्था दे दोगे।”
मैंने कहा, “साबूदाना मैंने बहुत खाया है, इसलिए, मैं उसकी व्यवस्था देने पर भी नहीं सुनूँगा।”
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