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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


पहले कह चुका हूँ कि यह मनुष्य बात कहना खूब जानता था। इस दफा उसने बात कहना शुरू किया! आँखों की पुतलियाँ और भौहें, कभी सिकोड़कर और कभी फैलाकर, कभी बुझाकर और कभी प्रज्ज्वलित करके उसने पक्षी के रोने से शुरू करके कान पर ठण्डी उसास के छोड़ने पर्यन्त की ऐसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्याख्या जुटाई कि दिन के समय, इतने लोगों के बीच बैठे हुए भी मेरे सिर के बाल तक काँटों की तरह खड़े हो गये। कल सुबह की तरह आज भी प्यारी गुप-चुप कब सरक कर समीप आ बैठी, इस पर मेरा ध्यान ही नहीं गया। एकाएक एक उसास के शब्द से गर्दन घुमाकर मैंने देखा कि वह ठीक मेरी पीठ के पीछे बैठी हुई निर्निमेष दृष्टि से बोलने वाले के मुँह की ओर देख रही है और उसके दोनों चिकने उजले गालों पर झड़े हुए अश्रुओं की दो धाराएँ सूखकर फूट उठी हैं। कब और किसलिए वह आँखों का जल बह निकला था, शायद वह बिल्कुल ही जान नहीं सकी; नहीं तो उन्हें पोंछ डालती। किन्तु, उसी अश्रु-कलुषित तल्लीन मुख का पल-भर का दृष्टिपात ही मेरे हृदय में एक अग्नि की रेखा अंकित कर गया। बात समाप्त होते ही वह उठकर खड़ी हो गयी और कुमारजी को सलाम करके, अनुमति माँगकर, धीरे-धीरे बाहर चली गयी।

आज सुबह ही मेरे बिदा होने की बात थी। परन्तु, शरीर स्वस्थ नहीं था, इसलिए कुमारजी का अनुरोध स्वीकार करके मैं उस समय, जाना स्थगित करके, अपने तम्बू में वापस लौट आया। इतने दिनों के बाद आज प्यारी के आचरण में पहले-पहल मैंने दूसरा भाव देखा। इतने दिन उसने परिहास किया है, व्यंग किया है, और कलह का आभास तक भी उसके दोनों नेत्रों की दृष्टि में कुछ दिन घनीभूत हो गया है- यह सब मैंने अनुभव किया है। परन्तु, इस तरह की उदासीनता पहले कभी नहीं देखी। फिर भी, व्यथित होने के बदले मैं खुश ही हुआ। क्यों, सो जानता हूँ।

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