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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


प्यारी बोली, “पड़े रहने दो। उनकी इच्छा होगी तो भेज देंगे; नहीं तो जाने दो। उनका मूल्य अधिक नहीं है!”

मैं बोला, “उनका दाम अधिक नहीं है यह सच है; परन्तु, मेरी जो मिथ्या बदनामी होगी, उसका दाम तो कम नहीं है।”

प्यारी मेरे पैर छोड़कर चुप हो रही। गाड़ी इसी समय एक मोड़ पर फिरी, जिससे पीछे का दृश्य मेरे सामने आ गया। एकाएक याद आया कि सामने के उस पूर्व दिशा के आकाश के साथ यह पतिता के मुख की मानो एक गहरी समानता है। दोनों के ही बीच से मानो एक विराट अग्नि-पिण्ड अन्धकार को भेदता हुआ आ रहा है, उसी का आभास मुझे दिखाई दिया है। मैं बोला, “चुप क्यों हो रही?”

प्यारी एक म्लान हँसी हँसकर बोलीं, “तुम क्या जानो कान्त बाबू, कि जिस कलम से जीवन-भर केवल जाली खत लिखती रही हूँ, उसी कलम से आज दान-पत्र लिखने को हाथ नहीं चल रहा है। जाते हो? अच्छा जाओ। किन्तु वचन दो कि आज बारह बजने के पहले ही वहाँ से चल दोगे?”

“अच्छा, देता हूँ।”

“किसी के कितने ही अनुरोध से आज की रात वहाँ न काटोगे, बोलो?”

“नहीं, नहीं, काटूँगा।”

प्यारी ने अपनी अंगूठी उतारकर मेरे पैरों पर रख दी, गल-वस्त्र होकर प्रणाम किया और पैरों की धूल अपने सिर पर लेकर उस अंगूठी को मेरी जेब में डाल दिया। बोली, “तब जाओ-मैं समझती हूँ कि डेढ़ेक कोस जगह तुम्हें अधिक चलना होगा।”

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