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उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
यह सब बहुत दिन पहले की बातें हैं। वह आनन्द अब नहीं है; परन्तु उस दिन जीवन में इस एकान्त विश्वास की निश्चित निर्भरता का स्वाद एक दिन के लिए भी मैं उपभोग कर सका, यही मेरे लिए परम लाभ है। परन्तु, साथ ही, मैंने उसे खो दिया, इसका भी मुझे किसी दिन क्षोभ नहीं हुआ। केवल इस बात का ही बीच-बीच में खयाल आ जाता है कि जिस शक्ति ने उस दिन हृदय के भीतर जाग्रत होकर इतनी जल्दी संसार का समस्त निरानन्द हरण कर लिया था, वह कितनी विराट शक्ति है! और सोचता हूँ कि उस दिन अपने ही समान अन्य दो अक्षम दुर्बल हाथों के ऊपर इतना बड़ा गुरु-भार न डालकर यदि मैं समस्त जगद्-ब्रह्माण्ड के भारवाही उन हाथों पर ही अपनी उस दिन की उस अखण्ड विश्वास की समस्त निर्भरता को सौंप देना सीखता, तो फिर, आज चिन्ता ही क्या थी? - किन्तु, अब जाने दो उस बात को।
राजलक्ष्मी को मैंने पहुँच का पत्र लिखा था। उस पत्र का जवाब बहुत दिनों बाद आया। मेरे अस्वस्थ शरीर के लिए दु:ख प्रकाशित करके गृहस्थ बनने के लिए उसने मुझे कई तरह के बड़े-बड़े उपदेश दिए थे और अपने संक्षिप्त पत्र यह लिखकर खत्म किया था कि यदि वह कामों के झंझटों के मारे पत्रादि लिखने का समय न पा सके, तो भी, मैं बीच-बीच में अपनी खबर उसे देता रहूँ और उसे अपना ही समझूँ।
तथास्तु। इतने दिनों बाद उसी राजलक्ष्मी की यह चिट्ठी!
आकाश-कुसुम आकाश में ही सूख गये और जो दो-एक सूखी पंखुड़ियां हवा से झड़ पड़ीं उन्हें बीन करके घर ले जाने के लिए भी मैं जमीन टटोलता नहीं फिरा। आँखों में से दो-एक बूँद पानी शायद पड़ा भी हो, किन्तु, वह मुझे याद नहीं। फिर भी, यह याद है कि और अधिक दिन मैंने स्वप्न देखते हुए नहीं काटे। तब भी इस तरह और भी पाँच-छह महीने कट गये।
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