लोगों की राय

उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

337 पाठक हैं

शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


उस समय संध्या की धुंध दूर होकर, आकाश में चन्द्रमा का उदय हो रहा था और उसकी धुँधली-सी किरण-रेखाएँ, वृक्षों की घनी शाखाओं और पत्तों में से छनकर नीचे के गहरे अन्धकार में पड़ रही थीं।

कुछ देर चुप रहकर जीजी एकाएक बोल उठीं, “इन्द्रनाथ, सोचा था कि आज ही अपनी सब कहानी तुम्हें सुना दूँ। किन्तु सोचकर देखा कि नहीं, अभी वह समय नहीं आया है। परन्तु मेरी एक बात पर अवश्य विश्वास कर लो कि हम लोगों की सारी करामात शुरू से आखिर तक प्रवंचना ही है। इसलिए अब तुम झूठी आशा से शाहजी के पीछे-पीछे चक्कर मत काटो। हम लोग मन्त्र-तन्त्र कुछ नहीं जानते, मुर्दे को भी नहीं जिला सकते; कौड़ी फेंककर साँप को भी पकड़कर नहीं ला सकते। और कोई कर सकता है या नहीं, सो तो मैं नहीं जानती, परन्तु हम लोगों में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है।”

न मालूम क्यों इस अत्यल्प काल के परिचय से ही मैंने उनके प्रत्येक शब्द पर असंशय विश्वास कर लिया; किन्तु, इतने दिनों के घनिष्ठ परिचय के होते हुए भी इन्द्र विश्वास न कर सका। वह क्रुद्ध होकर बोला, “यदि शक्ति नहीं है तो तुमने साँप को पकड़ किस तरह लिया?”

जीजी बोलीं, “यह तो सिर्फ हाथ का कौशल-भर है इन्द्र, किसी मन्त्र का जोर नहीं। साँप का मन्त्र हम लोग नहीं जानते।”

इन्द्र बोला, “यदि नहीं जानते; तो तुम दोनों ने धूर्तता से मुझसे इतने रुपये क्यों ठग लिये?”

जीजी तत्काल जवाब न दे सकीं; शायद अपने को कुछ सँभालने लगीं। इन्द्र ने फिर कर्कश कण्ठ से कहा, “तुम सब ठग, धूर्त, चोट्टे हो- अच्छा दिखाता हूँ तुम लोगों को इसका मजा।”

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book