| कहानी संग्रह >> सिंहासन बत्तीसी सिंहासन बत्तीसीवर रुचि
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सिंहासन बत्तीसी 32 लोक कथाओं का ऐसा संग्रह है, जिसमें विक्रमादित्य के सिंहासन में लगी हुई 32 पुतलियाँ राजा के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।
चौथी पुतली कामकंदला
राजा विक्रमादित्य ने एक बार बड़ा ही आलीशान महल बनवाया। उसमें कहीं जवाहरात जड़े थे तो कहीं सोने और चांदी का काम हो रहा था। उसके द्वार पर नीलम के दो बड़े-बड़े नगीने लगे थे, जिससे किसी की नजर न लगे। उसमें सात खण्ड थे। उसके तैयार होने में बरसों लगे। जब वह तैयार हो गया तो दीवान ने जाकर राजा को खबर दी। एक ब्राह्मण को साथ लेकर राजा उसे देखने गया।
महल को देखकर ब्राह्मण ने कहा, “महाराज! इसे तो मुझे दान में दे दो।”
ब्राह्मण का इतना कहना था कि राजा ने उस महल को तुंरत उसे दान कर दिया। ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ अपने कुनबे के साथ उसमें रहने लगा।
एक दिन रात को लक्ष्मी आयी और बोली, “मैं कहां गिरुं?”
ब्राह्मण समझा कि कोई भूत है। वह डर के मारे वहां से भागा और राजा को सब हाल कह सुनाया।
राजा ने दीवान को बुलाकर कहा, “महल का जितना मूल्य है, वह ब्राह्मण को दे दो।”
इसके बाद राजा स्वयं जाकर महल में रहने लगा। रात को लक्ष्मी आयी और उसने वही सवाल किया। राजा ने तत्काल उतर दिया कि मेरे पलंग को छोड़कर जहां चाहो गिर पड़ो। राजा के इतना कहते ही सारे नगर पर सोना बरसा। सवेरे दीवान ने राजा को खबर दी तो राजा ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जिसकी हद में जितना सोना हो, वह ले ले।
इतना कहकर पुतली बोली, “महाराज! इतना था विक्रमादित्य प्रजा का हितकारी। तुम किस तरह उसके सिंहासन पर बैठने की हिम्मत करते हो?”
वह पुतली भी निकल गई। अगले दिन फिर राजा सिंहासन पर बैठने को उसकी ओर बढ़ा कि पांचवी पुतली लीलावती बोली, "राजन्! ठहरो। पहले मुझसे विक्रमादित्य के गुण सुन लो।"
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