| कहानी संग्रह >> वीर बालक वीर बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
        भीमसेन
          ने भी गरज करके बर्बरीक को डाँटा और- 'जल स्नान के ही लिये है, तीर्थ में
          स्नान करने की आज्ञा है’ आदि कहकर अपने कार्य का समर्थन किया। बर्बरीक ने
          बताया- 'जिनके जल बहते हैं, ऐसे तीर्थो में ही भीतर जाकर स्नान करने की
          विधि है। कूप-सरोवर आदि से जल लेकर बाहर स्नान करना चाहिये, ऐसा शास्त्र
          का विधान है। जहाँ से भक्तजन देवताओं को स्नान कराने का जल न लेते हों और
          जो सरोवर देवस्थान से सौ हाथ से अधिक दूर हो, वहाँ पहले बाहर दोनों पैर
          धोकर तब जल में स्नान किया जाता है। जो जल में मल, मूत्र, विष्ठा, कफ,
          थूक
          और कुल्ला छोड़ते हैं, वे ब्रह्म हत्यारे के समान हैं। जिसके हाथ-पैर,
          मन-इन्द्रियाँ अपने वश में हों, जो संयमी हो, वही तीर्थ का फल पाता है।
          मनुष्य पुण्यकर्म के द्वारा दो घड़ी भी जीवित रहे तो उत्तम है,
          परलोक-विरोधी पापकर्म करके कल्पपर्यन्त की भी आयु मिलती हो तो उसे
          स्वीकार
          न करे। इसलिये तुम झटपट बाहर आ जाओ।’
        
        बर्बरीक
          की शास्त्रसम्मत बात पर जब भीमसेन ने ध्यान नहीं दिया, तब बर्बरीक ने ईंट
          के टुकड़े भीमसेन के मस्तक पर लक्ष्य बनाकर मारने प्रारम्भ किये। आघात को
          बचाकर भीम बाहर निकल आये और बर्बरीक से भिड़ गये। दोनों ही महाबली थे,
          अत:
          दोनों जमकर मल्लयुद्ध करने लगे। दो घडी में भीमसेन दुर्बल पड़ने लगे।
          बर्बरीक उन्हें सिर से ऊपर उठाकर समुद्र में फेंकने के लिये चल पड़ा।
          समुद्र के किनारे पहुँचने पर आकाश में स्थित होकर भगवान् शंकर ने कहा-
          'राक्षसश्रेष्ठ! इन्हें छोड़ दो। ये भरतकुल के रत्न तुम्हारे पितामह
          पाण्डुनन्दन भीमसेन हैं। ये तुम्हारे द्वारा सम्मानित होने योग्य हैं।'
        
        बर्बरीक
          ने जो यह बात सुनी तो वह भीमसेन को छोड़कर उनके चरणों पर गिर पड़ा। वह
          अपने
          को धिक्कारने लगा, फूट-फूट कर रोने और क्षमा माँगने लगा। उसे अत्यन्त
          व्याकुल होते देख भीमसेन ने छाती से लगा लिया। उसे समझाया- 'बेटा!
          तुम्हारा कोई दोष नहीं है। भूल हमसे ही हो रही थी। कुमार्ग पर चलने वाला
          कोई भी हो, क्षत्रिय को उसे दण्ड देना ही चाहिये। मैं बहुत प्रसन्न हूँ।
          मेरे पूर्वज धन्य हैं कि जिनके कुल में तुम्हारे-जैसा धर्मात्मा पुत्र
          उत्पन्न हुआ है। तुम सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसनीय हो। तुम्हें शोक नहीं
          करना चाहिये।'
        			
		  			
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