कहानी संग्रह >> वीर बालक वीर बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
पाताल
से निकलते समय परम सुन्दरी नागकन्याओं ने बर्बरीक के रूप एवं पराक्रम पर
मुग्ध होकर उनसे प्रार्थना की कि वे उन सबसे विवाह कर लें; किंतु
जितेन्द्रिय बर्बरीक ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। उन्होंने सदा
ब्रह्मचारी रहने का व्रत ले रखा था। जब पाताल से बर्बरीक लौटे, विजय ने
उनको हृदय से लगा लिया। उन सिद्ध पुरुष ने कहा- 'वीरेन्द्र! मैंने
तुम्हारी कृपा से ही सिद्धि प्राप्त की है। मेरे हवनकुण्ड में सिंदूर के
रंग की परम पवित्र भस्म है, उसे तुम हाथ में भरकर ले लो। युद्धभूमि में
इसे छोड़ देने पर साक्षात् मृत्यु भी शत्रु बनकर आ जाय तो उसे भी मरना
पड़ेगा। इस प्रकार तुम शत्रुओं पर सरलता से विजय प्राप्त कर सकोगे।
बर्बरीक
ने कहा- ‘उत्तम पुरुष वही है, जो निष्काम भाव से किसीका उपकार करता है।
जो
किसी वस्तु की इच्छा रखकर उपकार करता है, उसकी सज्जनता में भला क्या गुण
है? यह भस्म आप किसी दूसरे को दे दें। मैं तो आपको सफल एवं प्रसन्न देखकर
ही प्रसन्न हूँ।’
विजय
को देवताओं ने सिद्धैश्वर्य प्रदान किया। उसका नाम 'सिद्धसेन' हो गया।
उनके वहाँ से चले जाने के कुछ काल बीत जाने पर पाण्डव लोग जुए में हारकर
वनों एवं तीर्थों में घूमते हुए उस तीर्थ में पहुँचे। पाँचों पाण्डव और
द्रौपदी बहुत थके थे। चण्डिका देवी का दर्शन करके वे वहाँ बैठ गये।
बर्बरीक भी वहीं थे; किंतु न तो पाण्डवों ने बर्बरीक को देखा था और न
बर्बरीक ने पाण्डवों के कभी दर्शन किये थे, अत: वे एक दूसरे को पहचान न
सके। प्यासे पीड़ित भीमसेन वहाँ कुण्ड में जल पीने उतरने लगे तो युधिष्ठिर
ने उनसे कहा- 'पहले जल लेकर कुण्ड से दूर हाथ-पैर धो लो, तब जल पीना।'
लेकिन भीमसेन प्यास से व्याकुल हो रहे थे। युधिष्ठिर की बात बिना सुने ही
वे जल में उतर गये और वहीं हाथ-पैर धोने लगे। उन्हें ऐसा करते देखकर
बर्बरीक ने डाँटकर कहा- 'तुम देवी के कुण्ड में हाथ-पैर धोकर उसे दूषित
कर
रहे हो, मैं सदा इसी जल से देवी को स्नान कराता हूँ। जब तुममें इतना भी
विचार नहीं, तब फिर व्यर्थ क्यों तीर्थों में घूमते हो?
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