कहानी संग्रह >> वीर बालक वीर बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
बर्बरीक
का इससे शोक नहीं मिटा। वह कहने लगा- 'पितामह! मैं प्रशंसा के योग्य नहीं
हूँ। सब पापों का प्रायश्चित्त है, परंतु जो माता-पिता का भक्त नहीं,
उसका
उद्धार नहीं होता। जिस शरीर से मैंने पूज्य पितामह का अपराध किया है, उसे
आज महीसागर-संगम में त्याग दूँगा, जिससे दूसरे जन्मों में मुझसे ऐसा
अपराध
न हो।'
वह
समुद्र के किनारे पहुँचा और कूदने को उद्यत हो गया। उस समय वहाँ
सिद्धाम्बिका तथा चारों दिशाओं की देवियाँ भगवान् रुद्र के साथ आयीं।
उन्होंने बर्बरीक को आत्महत्या करने से समझाकर रोका। उनके रोकने पर उदास
मन से वह लौट आया। पाण्डवों को उसके पराक्रम को देखकर बड़ा आश्चर्य एवं
प्रसन्नता हुई। बर्बरीक का उन्होंने सम्मान किया।
जब
पाण्डवों के वनवास की अवधि समाप्त हो गयी और दुरात्मा दुर्योधन ने उनका
राज्य लौटाना स्वीकार नहीं किया, तब कुरुक्षेत्र के मैदान में
महाभारत-युद्ध की तैयारी होने लगी। युद्ध के प्रारम्भ में महाराज
युधिष्ठिर ने अर्जुन से अपने पक्ष के महारथियों की शक्ति के विषय में
प्रश्र किया। अर्जुन ने सबके पराक्रम की प्रशंसा करके अन्त में बताया कि
'मैं अकेला ही कौरव-सेना को एक दिन में नष्ट करने में समर्थ हूँ।’ इस बात
को सुनकर बर्बरीक से नहीं रहा गया। उसने कहा- 'मेरे पास ऐसे दिव्य
अस्त्र-शस्त्र एवं पदार्थ हैं कि मैं एक मुहूर्त में ही सारी कौरव-सेना
को
यमलोक भेज सकता हूँ।'
भगवान्
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक की बात का समर्थन किया और फिर कहा- 'बेटा! तुम
भीष्म, द्रोण आदि से रक्षित कौरव-सेना को एक मुहूर्त में कैसे मार सकते
हो?'
भगवान
की बात सुनकर अतुलबली बर्बरीक ने अपना भयंकर धनुष चढ़ा दिया और उस पर एक
बाण रखा। उस पोले बाण को लाल रंग से भरकर कान तक खींचकर उसने छोड़ दिया।
उसके बाण से उड़ी भस्म दोनों सेनाओं के सैनिकों के मर्मस्थल पर जाकर
गिरी।
केवल पाण्डवों, कृपाचार्य और अश्वत्थामा के शरीर पर वह नहीं पड़ी। बर्बरीक
ने इतना करके कहा- 'आप लोगों ने देख लिया कि मैंने इस क्रिया से मरने
वाले
वीरों के मर्मस्थान का निरीक्षण किया है। अब देवी के दिये तीक्ष्ण बाण
उनके उन मर्मस्थानों में मारकर उन्हें सुला दूँगा। आप लोगों को अपने धर्म
की शपथ है, कोई शस्त्र न उठावे। मैं दो घड़ी में ही शत्रुओं को मारे देता
हूँ।’
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